कांग्रेस पार्टी का पुनरूत्थान करने के लक्ष्य के साथ बिहार पहुंचे कृष्णा अल्लावरू कांग्रेस के संभवतः एकमात्र प्रभारी महासचिव हैं, जो वेतन पर नौकरी करते हैं। कांग्रेस उनको वेतन देती है। वे यूथ कांग्रेस में भी वेतन पर ही काम करते थे। तभी उन्होंने बिल्कुल कॉरपोरेट स्टाइल में बिहार में काम किया। उनको जो मैंडेट था उसमें बिल्कुल लचीलापन उन्होंने नहीं दिखाया। तभी ऐसे तमाम नेता किनारे हो गए, जिनका आधार था, जो बिहार के जानते समझते थे और जिनका लालू प्रसाद के परिवार के साथ अच्छे संबंध थे। उनकी जगह पप्पू यादव जैसे नेता उभर कर सामने आ गए, जिनके साथ लालू परिवार के बहुत खराब संबंध रहे हैं। इस वजह से राजद और कांग्रेस में दूरी बढ़ी। अल्लावरू के साथ जो दूसरे नेता आगे बढ़े वे कन्हैया कुमार हैं। उनका बिहार में कोई राजनीतिक वजूद नहीं है, लेकिन अपने गृह जिले बेगूसराय की राजनीति को वे अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं, जो वहां लेफ्ट के साथ संबंध खराब हो गए।
कांग्रेस की बड़ी गलती यह हुई कि उसने बछवाड़ा सीट पर जहां पिछले चुनाव में सीपीआई के अवधेश राय तीन सौ वोट से हारे थे वहां अपने शिव प्रकाश गरीब दास को उतार दिया। इससे नाराज होकर सीपीआई ने तीन सीटों पर कांग्रेस के सामने उम्मीदवार उतार दिए। उसमें एक कांग्रेस की जीती हुई राजापाकड़ की सुरक्षित सीट भी है। तीनों सीटों पर कांग्रेस के सामने समस्या है। यह कांग्रेस की नादानी के कारण हुआ। दूसरी ओर राजद ने महागठबंधन की दूसरी पार्टियों खास कर कांग्रेस की ऐसी सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारा, जहां कांग्रेस और भाजपा या कांग्रेस और जदयू की लड़ाई में राजद उम्मीदवार के जीतने के चांस हैं। जैसे नरकटियागंज सीट पर कांग्रेस के शाश्वत केदार पांडेय और भाजपा के संजय पांडेय सहित तीन ब्राह्मण उम्मीदवार हैं वहां राजद ने दीपक यादव को प्रत्याशी बनाया। ऐसे ही कहलगांव सीट पर कांग्रेस के कुशवाहा और जदयू के अति पिछड़ा उम्मीदवार के सामने अपना यादव उम्मीदवार दे दिया। वैशाली में कांग्रेस के भूमिहार और भाजपा के निषाद उम्मीदवार के सामने अपना कुर्मी उम्मीदवार दिया। इस करह कांग्रेस ने नादानी की और राजद ने नपा तुला दांव चला।
