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चुनाव के बीच पोपुलिस्ट फैसले

इसको कानूनी रूप से चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन नहीं माना जाएगा लेकिन क्या दो राज्यों के अहम विधानसभा चुनाव के बीच केंद्र सरकार द्वारा लोक कल्याण की बड़ी बड़ी योजनाओं की घोषणा न्यूनतम राजनीतिक नैतिकता का उल्लंघन नहीं हैं? क्या चुनाव आयोग को इस पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि राज्यों के चुनाव के समय केंद्र सरकार बड़े नीतिगत फैसले करके चुनावी लाभ लेने का प्रयास कर रही है? इससे पहले की सरकारें ऐसा नहीं करती थीं। आचार संहिता का उल्लंघन नहीं होने के बावजूद सरकारें राजनीतिक नैतिकता का ख्याल रखती थीं।

लेकिन मौजूदा सरकार को इसकी परवाह नहीं है। वह चुनावी लाभ लेने के लिए कोई भी कदम उठाने से परहेज नहीं करती है। इसलिए अब यह चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि वह इसे रोकने के उपाय करे। अन्यथा चुनाव में सबके लिए समान अवसर यानी लेवल प्लेइंग फील्ड होने का बुनियादी सिद्धांत प्रभावित होता है।

केंद्र की मौजूदा सरकार कैसे इस बुनियादी सिद्धांत को प्रभावित कर रही है यह हाल में हुए तीन फैसलों से समझा जा सकता है। चुनाव आयोग ने 16 अगस्त को जम्मू कश्मीर और हरियाणा में विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा की थी और उसी दिन से इन राज्यों में आचार संहिता लागू हो गई। इसके चार दिन बाद 20 अगस्त को जम्मू कश्मीर के पहले चरण की मतदान की अधिसूचना जारी हो गई और नामांकन शुरू होने के साथ ही चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई।

इसके चार दिन बाद 24 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट की बैठक हुई, जिसमें एकीकृत पेंशन योजना यानी यूपीएस को मंजूरी दी गई। यह पुरानी पेंशन योजना जैसी नहीं है, लेकिन नई पेंशन योजना से काफी बेहतर है। इसमें केंद्रीय कर्मचारियों को गारंटीड पेंशन की घोषणा की गई। यह समझने में क्या किसी को ज्यादा मुश्किल हो सकती है कि राज्यों के चुनावों को ध्यान में रख कर इस समय यह फैसला किया गया? प्रधानमंत्री ने 10 साल तक केंद्रीय कर्मचारियों के संगठन जेसीएम के साथ एक बार भी बैठक करने की जरुरत नहीं समझी थी। लेकिन लोकसभा चुनाव में भाजपा के खराब प्रदर्शन करने के बाद हो रहे पहले विधानसभा चुनावों की घोषणा के तुरंत बाद उन्होंने जेसीएम के साथ बैठक की और फिर यूपीएस का ऐलान किया, जिसमें पेंशन फंड में सरकार का हिस्सा बढ़ाया गया और कर्मचारियों को उनके आखिरी मूल वेतन के 50 फीसदी के बराबर गारंटीड पेंशन की घोषणा की गई।

इसी तरह पांच सितंबर को हरियाणा में भी नामांकन की प्रक्रिया शुरू हो गई और इसी बीच 11 सितंबर को हुई केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में 70 साल या उससे ऊपर की उम्र के लोगों को आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तहत हर साल पांच लाख रुपए तक के मुफ्त इलाज की योजना को मंजूरी दी गई। कैबिनेट बैठक के बाद अश्विनी वैष्णव ने इसकी जानकारी दी और मीडिया में इसे जम कर प्रचारित किया गया। जम्मू कश्मीर और हरियाणा में लाखों लोग इस योजना के दायरे में आएंगे।

इन दोनों राज्यों के लाभार्थियों की वास्तविक संख्या अभी तुरंत पता नहीं चल पाएगी लेकिन हरियाणा को लेकर पिछले दिनों एक आंकड़ा सामने आया, जिसके मुताबिक राज्य में छह हजार से ज्यादा लोग ऐसे हैं, जो सौ साल की उम्र पार कर चुके हैं और 90 से 99 साल की उम्र के 90 हजार लोग हैं। सो, अंदाजा लगाया जा सकता है कि 70 साल से ऊपर की उम्र के लोगों की संख्या लाखों में होगी। क्या यह नहीं माना जाना चाहिए कि केंद्र सरकार की योजना इन मतदाताओं को प्रभावित करने वाली है?

इसके बाद केंद्र सरकार ने 13 सितंबर को किसानों को राहत देने वाला बड़ा फैसला किया। केंद्र ने प्याज और बासमती चावल के निर्यात के लिए तय की गई न्यूनतम निर्यात कीमत को समाप्त कर दिया। प्याज के लिए यह कीमत 550 डॉलर प्रति टन और बासमती चावल के लिए 950 डॉलर प्रति टन थी। इसे खत्म करने के साथ ही सरकार ने बासमती चावल के निर्यात पर लगाई गई पाबंदी भी हटा दी। प्याज के निर्यात पर लगी पाबंदी मई में हटाई गई थी लेकिन न्यूनतम निर्यात कीमत यानी एमईपी के चलते किसान इसका ज्यादा फायदा नहीं उठा पा रहे थे।

सरकार के इस फैसले का महाराष्ट्र और हरियाणा दो राज्यों पर बड़ा असर होगा क्योंकि महाराष्ट्र में प्याज की खेती बहुत होती है और हरियाणा बासमती चावल की खेती के लिए मशहूर है। हरियाणा किसानों का राज्य है और किसान आंदोलन के समय वहां के किसानों ने इसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। अब भी कहा जा रहा है कि किसान, जवान और पहलवान ही हरियाणा के चुनाव में निर्णायक होंगे।

दो राज्यों में चुनाव की घोषणा के बाद हुए केंद्र सरकार के ये तीन फैसले बड़े सवाल खड़े करते हैं। इनमें से प्याज और बासमती चावल का न्यूनतम निर्यात मूल्य करने का फैसला सरकार का एक सामान्य कामकाजी फैसला माना जा सकता है लेकिन बाकी दो फैसले तो नीतिगत हैं और कैबिनेट की बैठक में हुए हैं। कायदे से केंद्र सरकार को चाहिए कि वह चुनावों के समय इस किस्म के नीतिगत फैसलों से बचे। हालांकि इसे लेकर यह सवाल उठ सकता है कि क्या एक या दो राज्यों के चुनाव हो रहे हों तब भी उनकी आचार संहिता क्या केंद्र पर लागू हो सकती है?

लेकिन असल में यह राज्यों की आचार संहिता केंद्र पर लागू करने का मामला नहीं है। यह कोई ऐसा फैसला नहीं है, जिसके साथ कोई आकस्मिकता जुड़ी हो। पेंशन का फैसला अगले साल अप्रैल से लागू होना है, इसलिए इसकी घोषणा चुनावों के बाद भी हो सकती थी। यह बहुत स्पष्ट है कि सरकार की मंशा इन नीतिगत फैसलों का राजनीतिक लाभ लेने की है। चूंकि सरकार खुद राजनीतिक नैतिकता का पालन नहीं कर रही है तो चुनाव आयोग को आगे बढ़ कर इसमें कोई कदम उठाना चाहिए। यह भले कानूनी रूप से गलत नहीं हो लेकिन इससे सबको समान अवसर देने के नियम का उल्लंघन होता है। केंद्र में सत्तारूढ़ दल को राज्यों के चुनाव में और भी कई फायदे होते हैं, जो स्वाभाविक रूप से मिलते हैं लेकिन अभी जो फैसले हुए हैं उसमें अपनी विशेष स्थिति का फायदा उठाने की सोची समझी योजना दिख रही है।

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