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‘‘उलझी है सारी सियासत, चुनावी जाल में”…!

political crises

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भोपाल। आज देश व देशवासियों के हालात देखकर मुझे आज से करीब छः दशक पहले की फिल्म ‘मदर इण्डिया’ के एक प्रसिद्ध व लोकप्रिय गीत की कुछ पंक्तियां याद आ रही है, जिसमें आज की भविष्यवाणी करते हुए लिखा गया था- ‘‘जीवन का गीत है सुर में न ताल में, उलझी है सारी दुनियां रोटी के जाल में’’, अन्तर सिर्फ इतना हो गया है कि आज दुनिया रोटी के नहीं सियासत के जाल में उलझी नजर आ रही है, किंतु इस गीत की पहली पंक्ति ‘‘जीवन का गीत है, सुर में न ताल में’’ आज भी अक्षरशः अवतरित हो रहा है। political crises

अब विचार का बिन्दु यह है कि क्या यह हमारे प्रजातंत्र का दोष है या नेताओं के दिल-दिमाग में आई खोट का? आज हमारे जिस प्रजातंत्र को पांच सालों में बांटा गया है, उसमें से हमारे प्रजातंत्र के प्रथम दो शब्दों ‘प्रजा’ को क्या मिला?

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यह कहने मात्र को प्रजातंत्र है, वह भी इसलिए क्योंकि ‘तंत्र’ को प्रजा चुनती है, किंतु आज का मुख्य प्रश्न यह कि क्या ‘तंत्र’ ने प्रजा के प्रति अपने कर्तव्यों, दायित्वों का निर्वहन किया, क्योंकि इन पांच सालों के पहले चुनावी वर्ष के दौरान ही अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए चंद अवधि हेतु जनता की पूछ-परख की जाती है और अपनी गरज पूरी होने और सत्तासीन होने के बाद ‘प्रजा’ को ‘तंत्र’ भुला देता है और उसे भगवान के भरोसे छोड़ देता है, पिछले पचहत्तर सालों से हमारे देश में यही जाल में उलझी रहती है, भारत आज इसी दौर से गुजर रहा है, स्वार्थ की सत्ता की कुर्सी पर विराजित ‘तंत्र’ को प्रजा की कोई चिंता नही है।

किंतु यह बात सही है कि हमारे देश की महान ‘प्रजा’ की तारीफ करनी पड़ेगी कि उसमें पिछले पचहत्तर सालों में कोई बदलाव नहीं आया, वह वही ‘‘नैकी कर और वोट डाल’’ की लीक पर चल रही है और अपने जीवन की हर समस्या को खुद ही हल कर रही है, अब आज विश्व के अन्य प्रजातंत्री देशों के क्या हाल है?

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यह तो पता नहीं, जहां के नागरिक अपने दायित्वों व कर्तव्यों के प्रति जागरूक है, वहां तो प्रजातंत्र ठीक ही चल रहा होगा, किंतु हमारे देश के देशवासियों में कोई फर्क नहीं आया, वे आज भी अपने दायित्वों, अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति अनजान व उदासीन है, इसलिए इस स्थिति का फायदा सियासत व उससे जुड़े लोग उठा रहे है, हम आज भी 1947 के ही मासूम, अज्ञानी देशवासी बने हुए हैI

जिसका हर दृष्टि से फायदा चंद जनप्रतिनिधि उठा रहे है, उन्हें न तो देश से कुछ लेना है, न देशवासियों से और न जनता के कल्याण से ही, वे सिर्फ अवसरवादी बनकर माैंके का फायदा उठाने में ही व्यस्त है और उन्होंने अपने जीवन का मूल मंत्र ‘‘लूट सके सो लूट’’ बना लिया है और जहां तक हमारा यानी देश की जनता का सवाल है, उसे अपनी निजी व पारिवारिक समस्याओं के हल खोजने और उनसे निपटने से ही फुरसत नहीं है।

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आज का सबसे अहम् सवाल इसलिए यही है कि ‘‘इस देश की चिंता किसे है?’’ नेताओं-जनप्रतिनिधियों को अपनी स्वार्थ सिद्धी से फुर्सत नहीं है और देशवासियों को अपनी समस्याओं के हल खोजने से तो फिर ऐसी स्थिति में देश की चिंता कौन करेगा, इसे लुटने से कौन बचाएगा, यही अहम् चिंता आज मुट्ठी भर राष्ट्रभक्तों व आम देशवासी की है और इस चिंता का एकमात्र हल, जनता की जागरूकता है, उसी से इस समस्या का हल खोजकर देश की रक्षा की जा सकती है।

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