आज का माहौल कुछ भी लगता हो, कल के आसमान पर राहुल की इबारत लिखी हुई है। राहुल के पास पच्चीस साल हैं। नरेंद्र भाई के पास पच्चीस साल नहीं हैं। इसलिए जिन्हें लगता है कि 2029 का आम चुनाव नरेंद्र भाई भाजपा की झोली में फिर डाल देंगे, वे यह भूल रहे हैं कि नरेंद्र भाई तो, बावजूद हर तरह की कोशिश के, 2024 के चुनाव नतीजों का सेहरा ही ठीक से भाजपा के माथे पर नहीं बंधवा पाए तो 2029 तो अभी चार साल दूर है।
राहुल गांधी पचपन के हो गए। दो दिन पहले जब उन का जन्म दिन था तो मैं ने कई भाड़े के और बे-भाड़े के जलकुक्कड़ों को उन के पचपन का हो जाने पर भी छिछली तानाकशी करते देखा-सुना-पढ़ा। किसी को पचपन का हो जाने पर भी राहुल का बचपन समाप्त न होने की फ़िक्र सता रही थी, कोई पचपन का हो जाने पर भी उन के विवाह न करने की चिंता में ठोड़ी पर हाथ धरे बैठा था और किसी को यह ग़म खाए जा रहा था कि पचपन का हो जाने के बावजूद भी अगर वे अब तक राजनीति में कामयाब नहीं हो पाए हैं तो अब कब होंगे?
वैसे तो दो दशक से, और ख़ासकर पिछले एक दशक से, राहुल-विरोध का मनका फेर रही टोली को कोई बताए कि सब ऐसे भाग्यशाली नहीं होते हैं कि पचपन में भी अपना बचपन बरकरार रख पाएं। यह बचपन-भाव ही है, जो आप में सहजता को बनाए रखता है। बचपन बीता कि अच्छे-ख़ासे मनुष्य भी दर्प से भरे चेहरे पर कुटिल मुस्कान उंडेलते विचरने लगते हैं। बचपन बीतते ही लोग छाती ठोक-ठोक कर अकेले ही सब पर भारी पड़ने लगते हैं। बचपन गया कि काइयांपन आया। इसलिए जिन में बचपन बाक़ी है, उन का अभिनंदन कीजिए। जिन का बचपन सूख गया है, उन से सावधान रहिए।
बचपन शेष है तो आप जब किसी की आंखें भारी होते देखेंगे तो उस का सिर अपनी गोद में ले कर हौले-हौले थपकी देने लगेंगे। मगर जिस का बचपन ग़ुम हो जाता है, वह तो आप की आंख झपकी नहीं कि सिर के नीचे से आप की गठरी पार कर देगा। बचपन सच्चे शब्दों की थिरकन का नाम है। बचपन बीता कि ज़ुमलेबाज़ी शुरू। बचपन दीन-ईमान है। बचपन गुज़रा कि मारधाड़, काट-छांट और हिस्सा-बांट का बैताल आप की पीठ पर सवार हो जाता है। बचपन से गुज़रने के अनुभव की अपनी दिव्यता है। पचपन में भी बचपन के अंश सहेजे रखना अध्यात्म है।
बचपन का यह शेषांश ही किसी को कुलियों के साथ कुली, मोची के साथ मोची, मैकेनिक के साथ मैकेनिक, दर्ज़ी के साथ दर्ज़ी, धान बोते किसान के साथ किसान और मज़दूर के साथ तगाड़ी ले कर मिट्टी ढोता मज़दूर बनने की ताब देता है। बचपन बचा रहे, तभी कोई देसी-परदेसी विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों से घुल-मिल पाता है, तभी वह अंतरराष्ट्रीय विचार केंद्रों की विद्वत परिषद के धुरंधर अध्येताओं के साथ उन्हीं के स्तर का विमर्श कर पाता है और तभी वह वैश्विक हस्तियों को अपने कुदरती आत्मविश्वास के साथ भारत गणराज्य का आधारभूत मंत्र समझा पाता है।
कई तो ऐसे होते हैं, जिन के जीवन में बचपन कभी आता ही नहीं है। ऐसे लोग जन्म लेते ही ताल ठोकने लगते हैं। वे अपने बारे में उन कहानियों को रचने की योजनाएं बनाने लगते हैं, जिन में खरगोशों को सहलाने के बजाय मगरमच्छों के साथ कुश्ती लड़ने के प्रसंग हों। ये सब हीन-ग्रंथि से ग्रस्त होने के लक्षण हैं। ऐसे ही लोगों को आगे चल कर थोथे आत्मविश्वास का लबादा ओढ़ कर घूमना पड़ता है। ऐसे ही लोगों के मन में ‘मान-न-मान, मैं तेरा मेहमान’ बन कर ख़ुद को पूरी दुनिया पर थोपने की हवस पैदा होती है। ऐसे ही लोग एक झूठ को बार-बार, सौ बार, दोहरा कर सच में बदलने की तकनीक ईज़ाद करते हैं। ऐसे ही लोग झक्कू-झांसे को सफलता का मूल-दर्शन मानते हैं।
क्या हम इसलिए राहुल का मखौल उड़ाएं कि वे पचपन का होने पर भी इन तमाम विकारों से मुक्त हैं? क्या हम उन महामनाओं की कशीदाकारी करें, जिन्होंने पचपन तो क्या बावन का होते-होते ही भारतीय समाज को ऐसे ज़ख़्म दे डाले थे, जिन से हमारी सदियों पुरानी समावेशी परंपराओं का हमेशा के लिए अंत हो गया? क्या हम ऐसे स्वनियुक्त विश्वगुरु की महिमा गाएं, जो विश्व राजनय के संजीदा मंचों को जबरन-झप्पियों और ग़ैरमौजूं हीहीहीही के डांस फ्लोर में तब्दील करने पर पिला हुआ है? राहुल ने विदेशी धरती पर यह कह दिया, राहुल ने विदेशी धरती पर वह कह दिया का विलाप कर रही पलटन कभी अपने आराध्य द्वारा विदेषी धरती पर व्यक्त किए गए उद्गारों पर कुछ कहने का साहस जुटाएगी? राहुल की टी-शर्ट पर टिप्पणियां करने वाली अनुचर-टोली, अपने परिधानों पर सिलवटें न पड़ जाने की फ़िक़्र में घुले जा रहे एक अजैविक महामानव की लालसाओं पर, कुछ बोलेगी?
रतौंधी बुरी बीमारी है। पिछले दस-ग्यारह साल में भारतीय समाज के एक तबके में यह रोग बहुत तेज़ी से फैला है। इस तबके का आकार जितना बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है, उतना है नहीं। पिछले तीन आम चुनावों में से हर एक में जितने मतदाताओं ने केंद्र के मौजूदा सत्तारूढ़ दल को वोट दिए हैं, उन से बहुत ज़्यादा संख्या में मतदाता उस के ख़िलाफ़ वोट दे कर लौटे हैं। अगर हम मतदान से जुड़ी तमाम शंकाओं को दरकिनार भी कर दें तो क्या यह अकेला तथ्य इस बात को साबित करने के लिए काफी नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी न तो दुनिया का सब से बड़ा राजनीतिक दल है और न भारतवासियों की सब से पसंदीदा पार्टी। देश और दुनिया में प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी की लोकप्रियता के सारे दावे थोथे हैं।
मेरी दृढ़ मान्यता है कि समूची प्रचार प्रणाली मुट्ठी में होते हुए भी 55+20त्+75 के नरेंद्र भाई लोगों के दिलों में उस तरह नहीं उतर पाए हैं, जिस तरह राहुल उतर गए हैं। सामदामी तौर-तरीकों से गढ़े गए आज के सियासी माहौल पर मत जाइए। इसलिए कि नरेंद्र भाई के पक्ष में इस आबोहवा को बहाने वाली दैत्याकार पवनचक्कियां बारह बरस पहले से अपने काम में जुटी हुई हैं। यह प्रचार व्यवस्था ‘पैसा फेंक, तमाशा देख’ पर तो आधारित है ही, ‘घोड़ा बादाम खाए, पीछे देखे मार खाए’ के हंटर-दर्शन से भी संचालित है। नरेंद्र भाई को महाकाय बनाने और राहुल को पप्पू करार देने की योजनाओं पर पिछले एक दशक में समान त्वरा से काम हुआ है। सरकार के अलावा निजी कॉरपारेट ने भी इस के लिए अपना खज़ाना दोनों हाथों से लुटाया है।
सो, आज का माहौल कुछ भी लगता हो, कल के आसमान पर राहुल की इबारत लिखी हुई है। राहुल के पास पच्चीस साल हैं। नरेंद्र भाई के पास पच्चीस साल नहीं हैं। इसलिए जिन्हें लगता है कि 2029 का आम चुनाव नरेंद्र भाई भाजपा की झोली में फिर डाल देंगे, वे यह भूल रहे हैं कि नरेंद्र भाई तो, बावजूद हर तरह की कोशिश के, 2024 के चुनाव नतीजों का सेहरा ही ठीक से भाजपा के माथे पर नहीं बंधवा पाए तो 2029 तो अभी चार साल दूर है। देश पूरी तरह से तो नरेंद्र भाई के साथ कभी था ही नहीं, जितना था भी, पिछले दो-तीन साल में उस का बड़ा हिस्सा उन से विमुख हो गया है। लिख कर रख लीजिए कि कांग्रेस की कमियों के और विपक्ष की तमाम खींचतान के बावजूद अगले आम चुनाव में ‘मोशा’-भाजपा की विदाई तय है। मतदाताओं की उकताहट का सूचकांक अपने चरम पर पहुंच रहा है। चार बरस बीतते-बीतते यह उकताहट अंधड़ बन जाएगी। इसलिए पचपन के राहुल की खिल्ली उड़ाने वालों को मेरी सलाह है कि अपनी पगड़ी संभालने की फ़िक्र पालें।