हिरोशिमा अस्सी साल पहले जापान का एक छोटा-सा शहर था। उसकी साधारणता भी अनकही थी। उसी शहर पर 6 अगस्त 1945 की सुबह 8:15 बजे, एक सफ़ेद चमक ने आकाश को चीर दिया। और तत्काल दृष्टि और समझ के बीच की उस क्षणिक दूरी में पूरा शहर मिट गया। आग के तूफ़ानों में लकड़ी के घर ध्वस्त हो गए, दोपहर से पहले काला पानी बरसने लगा। जो लोग बचे थे, धुएँ में भटक रहे थे—कपड़े चिथड़ों में, त्वचा हाथों से लटकती हुई। चंद सेकंडों में दसियों हज़ार लोग मारे गए; रात तक हिरोशिमा इतिहास में दर्ज एक साया रह गया। इस सबूत के रूप में कि “संप्रभुता” के नाम पर इंसान किसी शहर को पूरी तरह मिटा देने की हद तक जा सकता है! और ऐसे संहार को भी वह सुरक्षा का नाम दे सकता है।
तभी कई दशकों तक हिरोशिमा सिर्फ़ एक जगह नहीं रहा; वह एक चेतावनी था। उसके मलबे से एक दुर्लभ सहमति निकली। और वह यह थी कि नाभिकीय हथियार इतने ख़तरनाक हैं कि न इस्तेमाल किए जा सकते हैं, न धमकी दी जा सकती है। इसी सहमति से फिर परमाणु अप्रसार संधि (NPT) बनी। हाँ, तब भी यह पाखंडपना था कि पश्चिमी देश परमाणु हथियारों के भंडार रखे रहे मगर दूसरों से उसे छोड़ने को कहते रहे।
बावजूद इसके पाखंड के नीचे संयम की एक सच्ची प्रतिबद्धता भी थी। एक समय था जब परमाणु हथियार उस बारूद की तरह थे जिसे कोई नेता खुले में जलाने की हिम्मत नहीं करता था। 2009 तक आते-आते ये हथियार लगभग अप्रासंगिक लगने लगे थे। तब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने गंभीरता से परमाणु-मुक्त दुनिया की बात की थी। एक ऐसा सपना, जिसने थोड़ी देर के लिए यह आभास दिया कि शायद बम की परछाईं से दुनिया मुक्त हो जाए। लेकिन उलटा हुआ। अब समारिक रणनीतिकारों की भाषा में दुनिया “तीसरे परमाणु युग” में प्रवेश कर चुकी है।
रूस ने अपने परमाणु सिद्धांत की सीमा घटा दी है—व्लादिमीर पुतिन द्वारा हस्ताक्षरित संशोधित नीति के मुताबिक़, वह पारंपरिक हमले के जवाब में भी परमाणु हथियार चला सकता है। बम अब अटारी में नहीं, बल्कि मंच पर है। इसी रविवार की रात, पाकिस्तान के जनरल असीम मुनीर ने अमेरिकी ज़मीन पर—उस देश में जिसने सबसे पहले किसी शहर पर परमाणु हमला किया था—खड़े होकर भारत के साथ “परमाणु युद्ध” की धमकी दी है। इस चेतावनी के साथ कि यदि पाकिस्तान को अस्तित्व का ख़तरा हुआ तो वह “आधी दुनिया” को मिटा देगा। यह महज़ एक बयान भर नहीं था। यह पहली बार था जब दर्ज इतिहास में किसी तीसरे देश के ख़िलाफ़ अमेरिकी ज़मीन से परमाणु विध्वंस की धमकी दी गई।
जनरल मुनीर के कहे पर अमेरिका, दुनिया या भारत—किसी की भी अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। जाहिर है हिरोशिमा के मलबे से लेकर टैम्पा के मंच तक—परमाणु परछाईं फीकी नहीं हुई है, उसने बस अपना आकार बदला है।
इस बीच, अमेरिका–रूस के बीच आख़िरी बड़ा हथियार नियंत्रण समझौता, न्यू START, 5 फ़रवरी 2026 को समाप्त होने वाला है। और कोई पक्ष इसके नवीनीकरण के संकेत नहीं दे रहा है। रूस ने तो इसमें भागीदारी भी निलंबित कर दी है। इसके बग़ैर, दुनिया की दो सबसे बड़ी परमाणु ताक़तें बिना किसी सीमा या निरीक्षण के अपने परमाणु जखीरे को बढ़ा और आधुनिक बना सकेंगी। न्यू START का अंत केवल एक कानूनी चूक नहीं, बल्कि उस ढांचे का चुपचाप विध्वंस है जिसने आधी सदी तक—भले ही अपूर्ण रूप में—परमाणु हथियारों के फैलाव को काबू में रखा था।
तो अब आगे कैसे अंकुश, संयम रहेगा? शीत युद्ध के समय “भय का संतुलन” एक सूत्र था। दो महाशक्तियाँ, जो एक-दूसरे को मिटा सकती थीं, एक स्थिर समरूपता में बँधी थीं। वह समरूपता अब ख़त्म हो चुकी है। आज की परमाणु दुनिया बहुध्रुवीय तथा उलझी हुई है—जहाँ अलग-अलग भंडार, सिद्धांत और जोखिम लेने के उन्मादी खिलाड़ी हैं—भारत, पाकिस्तान, चीन, इज़राइल, उत्तर कोरिया और अन्य। नेता अब एक जैसा सोचते, डरते या हिसाब-किताब नहीं लगाते।
इससे भविष्य के सिनेरियों का अनुमान लगाना मुश्किल हो गया है। शीत युद्ध में वॉशिंगटन और मॉस्को दोनों एक-दूसरे की लाल रेखाएँ जानते थे। आज, लाल रेखाएँ धुँधली, बदलती और कभी-कभी जानबूझकर छुपाई जाती हैं। दक्षिण एशिया में मिसाइलों के छोटे उड़ान-समय का मतलब है कि नेताओं के पास घंटों नहीं, बल्कि मिनटों का समय है—प्रतिशोध और संयम में से कोई विकल्प चुनने का। पाकिस्तान से छोड़ी गई मिसाइल पाँच मिनट से भी कम में दिल्ली पहुँच सकती है; चीन से आने में इससे भी कम। पाकिस्तान के सामरिक परमाणु हथियारों ने युद्धक्षेत्र और रणनीतिक विनाश की सीमा मिटा दी है। मुनीर की टैम्पा वाली धमकी ने साफ़ कर दिया कि भारत की परमाणु हथियारों की रणनीति में अब दो मोर्चों की नहीं, बल्कि तीन मोर्चों की अस्थिरता है। मतलब भाषण के शब्द या किसी खबर से भी ट्रिगर कस सकते हैं। ऐसे माहौल में कोई भी नीति, चाहे कितनी ही सोच-समझकर लिखी हो, निश्चितता नहीं देती—सिर्फ़ मिनटों में, एक अपरिवर्तनीय निर्णय का नेता पर बोझ है।
दक्षिण एशिया से परे, चीन का अस्पष्ट सिद्धांत वॉशिंगटन और नई दिल्ली दोनों को अनुमान लगाने के सस्पेंश में रखता है। पश्चिम एशिया में, इज़राइल के अघोषित परमाणु जखीरे और ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षा विचारधारा और यथार्थ-राजनीति का अनिश्चित घालमेल और उसके खतरे लिए बनाए हुए हैं। युद्ध के मोर्चे—यूक्रेन, ताइवान, ग़ाज़ा, हिमालय सभी तरफ बढ़ते जा रहे हैं। परमाणु हथियार इन टकरावों को रोकते नहीं बल्कि दाँव-जोखिम को बढ़ा देते हैं। कूटनीति की खिड़की को छोटा करते हैं, और योजनाकारों को “सीमित” परमाणु विकल्प सोचने पर मजबूर करते हैं—जो सिद्धांत में संभालने योग्य लगते हैं, पर अमल में महाविनाशकारी हैं।
तकनीक इस अस्थिरता को और बढ़ा रही है। हाइपरसोनिक मिसाइलें चेतावनी प्रणालियों से तेज़ हैं। एआई याकि कृत्रिम बुद्धिमत्ता-सहायता प्राप्त लक्ष्य-निर्धारण उस मानवीय हिचक को खत्म कर सकते है जिसने कई बार दुनिया को टाल-मटोल के सहारे बचाया। साइबर हमले झूठे अलार्म बजा सकते हैं या नियंत्रण प्रणाली को पंगु बना सकते हैं। 21वीं सदी का पहला परमाणु प्रहार मिसाइल नहीं, बल्कि कोड की एक पंक्ति हो सकता है। लेकिन न्यू START या किसी वैकल्पिक समझौते के बग़ैर, यह एक बेकाबू एटमी दौड़ होगी। खासकर ऐसे समय में जब खिलाड़ी बढ़ रहे हैं, टकराव तेज़ है, और नियंत्रण पहले से ज़्यादा नाज़ुक है। दो टूक भाषा है और संयम वैकल्पिक है।
हिरोशिमा के बचे हुए लोग पूरी ज़िंदगी एटमी विनाश और लापरवाही के ख़िलाफ़ चेतावनी देते रहे हैं। वे जानते हैं कि राजनीतिक महत्वाकांक्षा और तकनीकी शक्ति के मिलन के अंत नतीजे क्या हो सकते है। लेकिन 2025 में, हिरोशिमा की स्मृति एक ऐसे संसार से टक्कर ले रही है जो युद्ध को स्क्रीन की छवियों और सिमुलेशनों में देखता है। मशरूम बादल अब संग्रहालय फुटेज हैं, न कि ब्रेकिंग न्यूज़। भय अमूर्त हो गया है; अंकुश-सुलह अब पृष्ठभूमि में है।
आने वाला समय परमाणु संतुलन से नहीं बंधा होगा बल्कि अस्थिरता से परिभाषित होगा। दुनिया अब दो स्थिर हाथों से नहीं, बल्कि कई हाथों से नियंत्रित है—कुछ असुरक्षा से काँपते हुए, कुछ अपनी ताक़त साबित करने को आतुर। एक ऐसी दुनिया में जो लड़ना चाहती है और रोकने वाला कोई नहीं है। विश्व व्यवस्था ही जब अराजकता में फंसी है तो एटमी खतरे को रोकने की व्यवस्था भी बनी नहीं रह सकती।
हिरोशिमा के अस्सी साल बाद, ख़तरा यह नहीं है कि नेता एटमी मिसाईले दागने का फ़ैसला करेंगे या नहीं? ख़तरा यह है कि, मिनटों के सस्पेंस, धुंध और संघर्ष की त्यौरियों में, क्या प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों, जनरलों के फ़ैसला करने के लिए स्पष्टता, विवेक व कट्रोंल के पल ही कितने बचे हुए होंगे?