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कई प्रादेशिक पार्टियों के अस्तित्व पर खतरा

इस बार लोकसभा चुनाव के नतीजे कई प्रादेशिक पार्टियों के लिए खतरे की घंटी हैं। कई राज्यों में मजबूत रहीं प्रादेशिक पार्टियों का अस्तित्व खतरे में दिख रहा है। ऐसा चुनाव हारने की वजह से नहीं है। ध्यान रहे एक या दो चुनाव में हार जाने से पार्टियां समाप्त नहीं हो जाती हैं। ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं, जब पार्टियों ने मजबूत वापसी की है। आंध्र प्रदेश में ही लोकसभा की तीन और विधानसभा की 22 सीट पर सिमट गई चंद्रबाबू नायडू की पार्टी इस बार लोकसभा में 16 और विधानसभा में 135 सीट जीत कर आई है। लोकसभा में जीरो सीट पाने वाली राजद को इस बार बिहार में चार सीटें मिली हैं। समाजवादी पार्टी ने 2019 में सिर्फ पांच सीटें जीती थीं, जिनमें से दो सीटें उसने उपचुनाव में गंवा दी थी फिर भी इस पर 37 सीटों के साथ उसने वापसी की है। सो, हार जीत से पार्टियों का अस्तित्व समाप्त नहीं होता है और उस आधार पर उनके खत्म होने की भविष्यवाणी करना भी बहुत खतरनाक है।

लेकिन हार जीत से अलग कुछ स्थितियां होती हैं, जिनसे पार्टियों के ऊपर मंडराते खतरे का आभास होता है। उनमें सबसे अहम यह नहीं होता है कि पार्टी को कितनी सीटें मिलीं या कितना मत प्रतिशत रहा या उसने कैसे चुनाव लड़ा। उसमें सबसे अहम यह होता है कि किसी पार्टी का सामाजिक या राजनीतिक आधार कितना बचा है और उसमें हिस्सेदारी लेने वाली कोई दूसरी पार्टी खड़ी हो रही है या नहीं। अगर किसी राज्य में किसी पार्टी के विकल्प के तौर पर दूसरी राजनीतिक ताकत खड़ी हो रही है तो फिर यह अस्तित्व पर खतरे वाली बात हो जाती है। मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल में कांग्रेस कैसे खत्म हुई या तमिलनाडु में कैसे हाशिए की पार्टी बन गई या बिहार और उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में कैसे मंडल की पार्टियों ने उसका वोट लेकर उसे हाशिए में पहुंचाया या दिल्ली में किस तरह से आम आदमी पार्टी ने उसका वोट लेकर उसे जीरो पर पहुंचा दिया। सो, जगह लेने वाली पार्टी का उदय राष्ट्रीय पार्टियों के लिए और कुछ राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों के लिए भी ज्यादा चिंता की बात होती है।

इस बार के लोकसभा चुनाव में कई राज्यों में और कई पार्टियों के सामने अस्तित्व का संकट दिखाई दिया है। बहुजन समाज पार्टी ऐसी ही एक पार्टी है, जिसके अस्तित्व के सामने बड़ा संकट दिख रहा है। उसके वोट प्रतिशत में लगातार गिरावट आती जा रही है। सत्ता से बाहर होने के बाद भी उसके पास 20 फीसदी का मजबूत वोट आधार था, जो 2014 में उसे मिला था। 2022 के विधानसभा चुनाव में यह घट कर 13 फीसदी हो गया और 2024 के लोकसभा चुनाव में उसका वोट प्रतिशत 9.39 फीसदी पर पहुंच गया। वह जीरो लोकसभा और एक विधानसभा की पार्टी बन कर रह गई है। उसे पूरे देश में 2.04 फीसदी वोट मिला। इससे पहले 2019 में उसे 3.6 फीसदी वोट मिला था। यानी उसने डेढ़ फीसदी से ज्यादा वोट गंवा दिया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मतदाताओं में यह मैसेज बन गया कि बहुजन समाज पार्टी एक स्वतंत्र पार्टी के तौर पर चुनाव नहीं लड़ रही है। वह भाजपा की सहायक पार्टी के तौर पर काम कर रही है। उसके अपने मतदाताओं में यह मैसेज बना कि अब बसपा एक फोर्स नहीं रह गई है और उन्हें दूसरा विकल्प खोजना चाहिए। तभी मायावती का वोट भाजपा और सपा दोनों के बीच बंटा। कांग्रेस भी उसका कुछ वोट लेने में कामयाब रही और इस बीच आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद एक बड़ी ताकत के तौर पर उभरे हैं। उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा का गढ़ रही नगीना सीट पर चुनाव जीता है। सो, बसपा को दो तरह से संकट है। एक, भाजपा और सपा की दो ध्रुवीय राजनीति मजबूत होना और दो, चंद्रशेखर का विकल्प के तौर पर उभरना।

इसी तरह तमिलनाडु में अन्ना डीएमके के सामने अस्तित्व का संकट है। उसे लोकसभा चुनाव, 2024 में एक भी सीट नहीं मिली है। पिछली बार वह एक सीट जीतने में कामयाब रही थी। इस बार उसे 20.46 फीसदी वोट मिला है लेकिन एक मजबूत राजनीतिक ताकत के तौर पर उसकी प्रासंगिकता कम हुई है। पार्टी में विभाजन की वजह से यह संकट खड़ा हुआ है। ओ पनीरसेल्वम और ई पलानीस्वामी के आपसी झगड़े की वजह से पार्टी की यह दुर्दशा हुई है। इसका फायदा भाजपा ने उठाया है। वह एक विकल्प के तौर पर तमिलनाडु में उभर रही है। उसे इस बार के चुनाव में 11.24 फीसदी वोट मिला है। सहयोगी पार्टियों को मिला लें तो उसका वोट 16 फीसदी से ज्यादा होता है। भाजपा ने जयललिता को हिंदुत्ववादी नेता बता कर डीएमके गठबंधन के विकल्प के तौर पर अपने को स्थापित करने की राजनीति शुरू की है, जिससे अन्ना डीएमके के सामने गंभीर संकट खड़ा हुआ है।

बिल्कुल इसी तरह का संकट तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति के सामने है। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना राष्ट्र समिति का नाम बदल कर भारत राष्ट्र समिति किया तो उसे देश के दूसरे हिस्से में कोई फायदा तो नहीं हुआ लेकिन अपने ही राज्य में सफाया हो गया। उसे लोकसभा की एक भी सीट नहीं मिली और वोट भी सिर्फ 16 फीसदी मिला। दूसरी ओर कांग्रेस के 40.10 के मुकाबले भाजपा को 35.08 फीसदी वोट मिला। तेलंगाना में भाजपा बड़ी तेजी से बीआरएस की जगह लेती जा रही है। हैदराबाद में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी की मौजूदगी ने भाजपा को हिंदुत्व का नैरेटिव बनाने में बड़ी मदद की है। हालांकि कई बार विधानसभा चुनाव में प्रादेशिक पार्टियां वापसी करती हैं। लेकिन कम से कम अभी तमिलनाडु में अन्ना डीएमके और तेलंगाना में बीआरएस के लिए रास्ता मुश्किल दिख रहा है।

इनके अलावा भी कुछ अन्य पार्टियां हैं, जिनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। मिसाल के तौर पर पंजाब में अकाली दल और हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल का नाम लिया जा सकता है। अकाली तो अपनी प्रासंगिकता बचाने के लिए जूझ रहे हैं लेकिन इनलो के सामने संकट गहरा दिख रहा है। पहले पार्टी में विभाजन हुआ और दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी ने इनेलो का आधार अपने साथ जोड़ लिया। इस बार दुष्यंत की पार्टी भी संकट भी दिख रहा है। दोनों का जाट वोट आधार पूरी तरह से कांग्रेस के भूपेंद्र सिंह हुड्डा के साथ जुड़ा है। तभी इस चुनाव में भी इनेलो के लिए कोई संभावना नहीं दिख रही है। संभव है कि उसका प्रादेशिक पार्टी का दर्जा भी समाप्त हो जाए।

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