Naya India-Hindi News, Latest Hindi News, Breaking News, Hindi Samachar

बाढ़ में डूबे तब भी ट्रोल के लिए राहुल!

इस साल का मानसून कोई मौसम नहीं बल्कि एक रहस्योद्घाटन है। भविष्य की भयावह चेतावनी है। बादलों के फटने और डूबते शहरों में लिखी वह सच्चाई है जिसे देश को लगातार झेलना होगा। अभी समय  है या जलवायु परिवर्तन के खतरे दूर है जैसे सभी भ्रम बह गए है। बाढ़ इबारत लिख रही है कि जीना तय नहीं है और संकट भरा भविष्य पहले ही आ चुका है। बावजूद इसके देश भर के नैरेटिव, सुर्खियों के होहल्ले पर गौर करे तो हकीकत दबी हुई है। जो राज कर रहे है उनका ध्यान जलवायु परिवर्तन पर है ही नहीं। वह आदत अनुसार तमाशों के शौर में देश का ध्यान बांटे हुए है।

नेता और राजनीति, सार्वजनिक सोशल मीडिया का चौक, डिजिटल मेगाफ़ोन सभी टुच्ची, छोटी बातों व तुच्छता पर ट्यून हैं। जैसे कसम खाई हुई हो कि न जागना न जागने देना। ध्यान देना ही नहीं। शनिवार की रात ट्विटर खोला तो हिमाचल की तबाही पर आक्रोश, चिंता नहीं, बल्कि हंसी उडाने, उपहास की बाढ़ मिली। सत्तारूढ़ पार्टी के सोशल मीडिया सेनापतियों के इशारे पर ट्रोल खाते राहुल गांधी की धुंधली तस्वीरें फैला रहे थे। उन्हें अगले दिन की सुर्ख़ी बना रहे थे। मतलब बाढ़ आई हुई है, हिमाचल बरबाद है और राहुल कथित “गुप्त मलेशिया दौरे” पर।

विरोधाभास चुभने वाला था: एक ओर प्रकृति का कहर, राहत कार्य, मानव हानि। दूसरी ओर गपशप से राजनीतिक साज़िश बना लोगों को परोसना। और, हमेशा की तरह, बाद वाला जीत गया। क्योंकि नए भारत में ध्यान भटकाए रखना ही शासन का असली बड़ा काम है। जबकि कमाल देखे कि दिल्ली, गुरूग्राम में जलभराव लोगों को भन्ना देने वाला था और डबल इंजिन की सरकार गायब थी। वह ट्रोल के निशाने में नहीं थी। यदि अरविंद केजरीवाल दिल्ली के अभी मुख्यमंत्री होते तो ट्रोल सेना दिल्ली की दुर्गति, बेहाली पर उन्हे कैसे ट्रोल कर रही होती!

मौजूदा पोपुलिस्ट राजनीति में सोशल मीडिया का दुरुपयोग शासन का हिस्सा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2002 के दंगों के दौरान ही मीडिया के शौर का महत्व जान लिया था। जब मीडिया के फोकस में वे आए तब उन्होंने समझ लिया कि सत्ता बनाए रखने के लिए कहानी पर कब्ज़ा ज़रूरी है। दो दशक बाद, भाजपा इस मामले में सिद्धी पा चुकी है। यों दुनिया में और जगह भी ट्रोलिंग शासन की कला है। इसे इज़राइल बनाम फ़िलस्तीनी, यूक्रेन बनाम रूस, तुर्की बनाम कुर्द से बूझ सकते है।

लेकिन भारत में ट्रोलिंग का एक खास अलग रूप है। एक ही स्थाई चेहरा है और वह राहुल गांधी है।

बीजेपी कहती है राहुल राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हैं—एक असफल वंशज, एक ‘पप्पू’। लेकिन उनकी ट्रोल आर्मी उनका हॉलीवुड स्टार की तरह पीछा करती है। उनका हर विदेशी दौरा, हर निजी तस्वीर हथियार बना दी जाती है। खान मार्केट में उनका डिनर हो तो ट्रौल सेनानी उसे ज़ार, महाराजा की दावत बताकर बेचते है। बहरीन यात्रा, कतर की खबर आए तो उसे मुल्लाओं को भारत बेचने की साज़िश बना दिया जाता है।

सोचने की बात है: अगर राहुल सच में मायने नहीं रखते, तो उन्हें बार-बार स्पॉटलाइट में क्यों घसीटा जाता है? जवाब राहुल में नहीं, बल्कि उसमें है जिसके वे प्रतीक हैं—“हम” द्वारा चुना गया “वह।” यही पुरानी पॉपुलिस्ट चाल है। जैसे निक्सन ने अमेरिका में “लॉ एंड ऑर्डर” से भय को वोट में बदला, वैसे ही बीजेपी हिंदू हक़दारी, सहानूभुति के लिए राहुल को गद्दार बताकर लोगों में भभका बनवाती है। असलियत भले कुछ न हो लेकिन कहानी तो बनती है। वही फिर जीतती भी है।

तभी ग्यारह वर्षों से ट्रौल सेना का नंबर एक टारगेट राहुल गांधी है। राहुल गांधी भी गजब है जो थकते नहीं, भागते नहीं, राजनीति से सन्यास नहीं लेते। पिछले ग्यारह वर्षों में प्रधानमंत्री, उनकी सरकार और भाजपा व सत्तावान ट्रोलसेना का एक ही मिशन रहा है और वह राजनीति से राहुल गांधी का बोरिया बिस्तर बंधवाने का है। यदि राहुल गांधी नहीं होते तो देश ग्यारह वर्षों में बिना विपक्ष वाली दशा में ही होता। इसलिए असलियत में एकमेव विपक्ष के प्रतीक चेहरे में राहुल गांधी ही है! राहुल गांधी ने वह किया, विरोध, संर्घष का ऐसे झंड़ा उठाए रखा जो उनकी क्षमता से सचमुच कई गुना अधिक लगता है।

फिलहाल ‘वे’ अर्थात ‘पप्पू’ हिमाचल की बाढ़ की कहानी में खलनायक करार है। हिसाब से जलवायु परिवर्तन की आपदाओं में पूरे देश के शासन की नाकामी पर ठिकरा फूटना चाहिए। मगर अलग ही कहानी बो दी गई। हर बार कोई संकट आता है तो हकीकत से ध्यान बंटाते हुए ट्रोल सेना कथा का रुख़ बदल देती है। नतीजा यह कि राहुल गांधी का मलेशिया दौरा राष्ट्रीय सुर्ख़ी बनता है। नतीजतन मोदी की विदेश यात्राएँ राष्ट्र की “उभरती छवि,” वही राहुल की यात्राएँ “देशद्रोह।” एक नेता की आभा में इजाफा तो  दूसरे पर ठिकरा फोड़ने व संदेह का चस्पा। ‘हम’ ‘महान’  और वह तो ‘पप्पू’!

पॉपुलिज़्म हर जगह “हम बनाम वे” पर चलता है। भारत में ऐसा होना औद्योगिक पैमाने पर ट्रोल आर्मी से फला-फूला है। कांग्रेस ने भी इसे अपनाना सीखा है, भले ही भद्दे तरीक़े से। राहुल गांधी ने एक नर्म उलटबाँसी आज़माई है: मोहब्बत बनाम नफ़रत। एक जोखिम भरा नारा, क्योंकि यहाँ ताक़त को आदेश से जोड़ा जाता है। बावजूद इसके यह भी एक साहसिक दांव है, जिसमें बीजेपी “वह” बनती है जिससे ट्रोल, नफ़रत फैलाने वाले, उपहास की फ़ौज की धारणाएं बनती है।

दुनिया भर में नेताओं ने तानाशाह पॉपुलिस्टों को चुनौती देने के लिए अपने लिए सहानुभूति को हथियार बनाया है: बाइडन ने ट्रंप के अमेरिका को “अंधकार बनाम शालीनता” कहा, लूला ने ब्राज़ील में “एकता बनाम विभाजन,” कोर्बिन ने “दयालुता बनाम क्रूरता।” उसी लीक पर राहुल की “मोहब्बत बनाम नफ़रत” की थीम है। लेकिन बीजेपी के पैमाने और अनुशासन से बहुत पीछे। कांग्रेस ट्रोल छिटपुट हमले करती है; बीजेपी ट्रोल रोज़ाना युद्ध छेड़े रहती हैं। वह ड्रोन हमले नहीं मिसाइल हमले करती है।

ख़तरा यह नहीं कि हर नागरिक हर दावे को मान लें। ख़तरा यह है कि इस तरह की लगातार ड्रमबीट असली संकटों को सांस लेने ही नहीं देती। ‘हम’ बनाम ‘वे’ इतना गड्डमड्ड हो गया है कि पहचान धुंधली हो रही है। भावनाएँ सतह पर हैं। और इस सबमें बाढ़, आपदा-विपदा सब फुटनोट बनते जा रहे है।  जलवायु परिवर्तन की मार, उसका संकट, आपातकाल पन्ने के कोने पर धकेल दिया जाता है।

भारत में मुख्य कहानी अब एक ‘मीम’ है। जहाँ सच्चाई डूब जाती है, और ध्यान भटका रहता है। इस काम में ध्यान भटकाने के लिए ट्रोल सेना के पास राहुल गांधी से बेहतर कौन? आख़िरकार, राजनीति अब वास्तविकता की नहीं, बल्कि धारणा की हो गई है—उस यूटोपिया की जहाँ हर कोई अपने हिसाब से सही है।

जैसे-जैसे हिमाचल डूब रहा था, राहुल पर ठिकरा फोड़ने वाले  ट्रोल तैर रहे थे। वे आधे-सच और हैशटैग में तैरते रहे। हर निजी पल को सार्वजनिक नाटक बना रहे थे। क्योंकि उनके लिए शासन नहीं, कथा और झूठ ही किनारा है। सो बाढ़ भले उतर जाए। राहत शिविर खाली हो जाएँ। लेकिन संकट आते रहेंगे और ट्रोलिंग चलती रहेगी—दूसरे को जिम्मेवार ठहराने में उतनी ही बेरहम होगी जितना यह मानसून साबित हो रहा है।

Exit mobile version