‘घृणा’ अब अपना धर्म
ईमानदारी से सोचे, यदि मनुष्य है तो जरूर सोचे। हम क्या होते हुए है? क्या ईमानदारी, सदाचारी, सत्यवादी, विन्रम, संतोषी, विश्वासी और प्रेम व करूणा, अंहिसा के सनातनी व्यापक धर्म की नैतिक मंजिले पाते हुए है या भ्रष्ट-बेईमान, झूठे, अंहकारी, भूखे, अविश्वासी, घृणा-नफरत, हिंसा से मन-मष्तिष्क, चित्त-वृति को भरते हुए है? मेरा मानना है हम बतौर नागरिक, समाज, धर्म व राष्ट्र उन वृतियों, प्रवृतियों, मन और व्यवहार में वे अवगुण धारते हुए है जिसकी कल्पना कलियुग के सर्वाधिक बुरे समय में भी नहीं थी। निश्चित ही किसी कौम और धर्म का नैतिक पतन देश-काल की आबोहवा की लीला से है।...