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कश्मीर घाटी पर भारत और पाकिस्तान के इरादों में शक्ति परीक्षण का निर्णायक वक्त 1990 व उसका दशक था। जनवरी-फरवरी 1990 में घाटी पूरी तरह अराजक थी।
लाख टके का सवाल है क्या सन् 1990 में घाटी से हिंदू सफाए के अपराध की जांच व सुनवाई हुई? नहीं।
हां, कश्मीर घाटी में ‘एथनिक क्लींजिंग’, ‘हिंदू सफाए’ के मुस्लिम संकल्प की रात का नारा! मानों खौफ का ज्वालामुखी फट पड़ा हो! दिनः 19 जनवरी 1990। स्थानः श्रीनगर (घाटी के शहर) और वक्त सर्द रात के कोई नौ बजे।
क्या 19 जनवरी 1990 की आधी रात में श्रीनगर की मस्जिदों से अल्लाह हो अकबर, काफिरों इस्लाम अपनाओ, नहीं तो भागो, मरो के नारों व सड़कों पर मुसलमानों ने शोर बनाकर कश्मीरी पंडितों को इकठ्ठा कर भगाया, मारा और घाटी को हिंदुओं से खाली कराया गया उसे कश्मीरी पंडितों का एक्सोडस (घाटी से विदाई), फ्ली (घाटी से भागना) कहेंगे या इतिहास की वह घटना ‘एथनिक क्लींजिंग’
कश्मीर घाटी ऐसे किरदारों, ऐसे सियासतदानों से कलंकित है, जिसमें कोई कश्मीरियत से भले प्रधानमंत्री बना हो लेकिन कुल मिलाकर वह धोखेबाज प्रमाणित हुआ। जिसे भारत का गृह मंत्री बनने का मौका मिला उसके हाथ भी जन सफाए-संहार याकि ‘एथनिक क्लींजिंग’ के खून से रंगे हुए।
यदि हिंदू राज में हर शाख पर उल्लू के अंदाज में घाटी हैंडल हुई है तो भला आईएसआई का इस्लामियत रंग क्यों नहीं चढ़ेगा? कश्मीर में एक तरफ शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी (1953 में) के बाद श्रीनगर में जहां कठपुतली मुख्यमंत्री थे तो दूसरी और कश्मीरी मुसलमानों का दिल-दिमाग जीतने की आईएसआई की जमीनी कोशिशें थीं।
आजाद भारत का कश्मीर अनुभव इस एक वाक्य में है- भारत राष्ट्र-राज्य, उसके हिंदू नेता डरे और भागते हुए, जबकि कश्मीरी मुसलमान संविधान, धर्मनिरपेक्षता, जम्हूरियत, इंसानियत और कश्मीरियत को अल्लाह हो अकबर के नारे से खारिज करता हुआ
कश्मीर अनुभव धोखे और विश्वासघात से तरबतर है। न केवल नेताओं, एजेंसियों, अफसरों ने देश, धर्म और कौम को गुमराह किया व लूटा, बल्कि धोखे में दोस्ती भी कुरबान! हां, पंडित नेहरू और शेख अब्दुल्ला की दोस्ती में विश्वासघात वह वाकया है, जिससे अंततः कश्मीरियत, इंसानियत, धर्मनिरपेक्षता भी कुरबान हुई।
कश्मीर मामले को नेहरू-पटेल संभालते थे तो गांधी बोलते हुए थे। वे हर मोड़ पर राय देते थे। तीनों जिन्ना-लियाकत अली की रणनीति को समझ नहीं पाए। जिन्ना ने रियासत के जम्मू क्षेत्र में हिंदू-मुस्लिम हिंसा का ऐसा भंवर बनवाया कि महाराजा, नेहरू, पटेल और गांधी सभी उसी में उलझे।
शेख अब्दुल्ला शेर-ए-कश्मीर कहलाए। क्यों? इसका अधिकारिक खुलासा नहीं है। तथ्य है न उनके कारण राजशाही खत्म हुई और न वे और उनके कार्यकर्ता पाकिस्तानी हमलावरों को ललकारने, कबाईलियों को रोकने जैसी बहादुरी की दास्तां लिए हुए हैं।
झूठी धारणा है कि 1947 में हिंदू बनाम मुस्लिम का विभाजक सेंटर घाटी थी। या यह मानना कि शेख अब्दुला धुरी थे। उनसे घाटी में शांति रही। ये फालतू बातें हैं। सन् 1946-1948 में जो हुआ वह महाराजा हरिसिंह और जम्मू केंद्रीत था। जम्मू में ही सर्वाधिक रक्तपात हुआ।
कश्मीर मसले का एक टर्निंग प्वाइंट 1946-48 का वह संक्रमण काल है, जिसमें जवाहरलाल नेहरू सहित भारत के पहले सर्वदलीय कैबिनेट ने गलतियां की तो महाराजा हरि सिंह ने अपने पांवों खुद कुल्हाड़ी मारी।
कश्मीर घाटी का सत्य-4: कश्मीर का पहले आदि सनातनी पुराण जानें। नीलमत पुराण के अनुसार पानी से निकला इलाका यानी घाटी। यह धारणा ज्योलॉजी-भूर्गभविज्ञान में मान्य है। और हां, कश्मीर शब्द संस्कृत से है सो, कश्य+मीर मतलब कश्यप ऋषि का सागर।
कश्मीर घाटी का सत्य दो टूक व सपाट है। सोचें, कश्मीर घाटी क्या है? मुश्किल से छह हजार वर्ग मील का सौ किलोमीटर चौड़ा एक इलाका। जबकि नए लद्दाख राज्य का एरिया 23 हजार वर्ग मील और जम्मू डिवीजन का फैलाव कोई 10 हजार वर्ग मील है।
अनुच्छेद 370 भले खत्म हो लेकिन सौ किलोमीटर चौड़ी कश्मीर घाटी में न हिंदू हैं और न हिंदू लौटता हुआ है। घाटी बिना हिंदू धड़कन के है।