अब रावण नहीं सच जलता है!
समय बहुत शोरगुल से भरा है, ख़ासतौर से धार्मिक अनुष्ठानों-पर्वो से। त्योहार अब केवल उल्लास-उमंग के नहीं रहे, वे अब “अपनी पहचान” के प्रदर्शन हैं। राष्ट्रवाद ने धर्म को ऐसी दूसरी खाल की तरह पहना है कि दोनों में भेद करना भी कठिन है। इस संगम को मैंने हाल में कागज़ और रंग में देखा। दिल्ली के तिलक नगर-टिटरपुर की पुतलों (effigy) की मंडी में,जिसे चाहें तो लंका का बाज़ार माने। सड़क किनारे हर आकार के रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण खड़े थे—विशालकाय पुतले, गुड्डे जैसे छोटे पुतले, चमकीली आँखों और दाँत दिखाती मुस्कुराहटों वाले चेहरे। गुलाबी, चाँदी और नारंगी की...