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महिला आरक्षण की मृग मरीचिका

महिला आरक्षण की मृग मरीचिका

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुताबिक देश में जो चार जातियां हैं उनमें से एक जाति किसान की है, और वह फिलहाल सड़क पर उतरी है। किसान उबल रहा है और सरकार ने सारी ताकत लगाई है कि किसी तरह से किसान पंजाब से निकल कर हरियाणा और वहां से दिल्ली न पहुंच पाएं। सीमाओं पर ऐसी किलेबंदी हुई है कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ किसान दिल्ली की सीमा पर पहुंचे तो आधे घंटे में सबको हिरासत में लेकर बसों में भर दिया गया और वापस भेज दिया गया। प्रधानमंत्री ने एक दूसरी जाति बताई है महिलाओं की। उनको सरकार की ओर से आरक्षण की मृग मरीचिका दिखाई गई है। नए संसद भवन में पहला बिल महिला आरक्षण का पेश हुआ था और संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है। लेकिन वह प्रावधान 2029 से पहले लागू नहीं होगा। उससे पहले इस साल के चुनाव के बाद जनगणना होगी और फिर परिसीमन और तब महिला आरक्षण की व्यवस्था लागू की जाएगी। लेकिन उससे पहले प्रधानमंत्री की पार्टी अपनी तरफ से महिलाओं को उनकी आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व नहीं दे सकती है।

अभी देश में राज्यसभा की 56 सीटों के लिए चुनाव हो रहे हैं, जिनमें आधी यानी 28 भाजपा की सीटें हैं। इन सीटों पर उसकी जीत तय है। इसके अलावा भी पार्टी ने दो उम्मीदवार उतारे हैं। लेकिन कुल महिला उम्मीदवारों की संख्या पांच है यानी 20 फीसदी से भी कम। प्रधानमंत्री के अपने राज्य गुजरात से चार लोग भाजपा की टिकट पर राज्यसभा में जाएंगे लेकिन कोई महिला नहीं होगी। महाराष्ट्र से भाजपा के तीन और उसकी दो सहयोगी पार्टियों के दो यानी कुल पांच लोग राज्यसभा में जाएंगे, जिनमें से एक मेधा कुलकर्णी महिला हैं। मध्य प्रदेश से भी भाजपा के चार लोग राज्यसभा में जाएंगे, जिनमें से एक माया नरोलिया महिला हैं। राजस्थान से दो और ओडिशा से एक सीट भाजपा को मिल रही है लेकिन उनमें कोई महिला नहीं है। उत्तर प्रदेश में भाजपा ने आठ उम्मीदवार उतारे हैं, जिनमें से दो- साधना सिंह और संगीता बलवंत महिला हैं। बिहार के दो में से एक धर्मशीला गुप्ता महिला हैं। हरियाणा, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ में एक एक सीटें हैं, जिन पर पुरुष उम्मीदवार ही हैं। सोचें, अगर कोई पार्टी महिलाओं को 33 फीसदी प्रतिनिधित्व देने को प्रतिबद्ध है और प्रधानमंत्री उसे एक ऐसी जाति मान रहे हैं, जो वंचित है तो फिर कानून बनने का इंतजार क्यों करना है? क्यों नहीं पार्टी अभी से नवीन पटनायक या ममता बनर्जी की तरह महिलाओं का 40 फीसदी या उससे ज्यादा प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर रही है?

यह विरोधाभास या दोहरा रवैया सिर्फ राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने में ही नहीं है, बल्कि महिलाओं के लिए लागू योजनाओं में भी है। पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव से ठीक पहले मध्य प्रदेश में तब के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लाड़ली बहना योजना की घोषणा की थी, जिसके तहत महिलाओं को हर महीने साढ़े 12 सौ रुपए देने का प्रावधान है। उन्होंने कहा था कि वे इसे बढ़ा कर तीन हजार रुपए महीना तक ले जाएंगे। राज्य में भाजपा की नई सरकार बनी तो शिवराज सिंह सीएम नहीं बने। नए मुख्यमंत्री के आते ही योजना पर संकट के बादल मंडराने लगे। हालांकि अभी यह योजना चल रही है लेकिन इसमें से कुछ समूहों को बाहर करने का काम शुरू हो गया है। पैसा बढ़ाए जाने की संभावना भी नहीं दिख रही है। लेकिन सबसे हैरानी की बात है कि अगर भाजपा को लग रहा है कि यह योजना महिलाओं के उत्थान के लिए रामबाण है और इससे पूरी महिला जाति का कल्याण हो सकता है कि देश भर में इसे क्यों नहीं लागू किया जा रहा है? प्रधानमंत्री ने किसानों को एक जाति माना है तो उनको साल में छह हजार रुपए की सम्मान निधि दे रहे हैं तो दूसरी जाति यानी महिलाओं को भी ऐसी निधि क्यों नहीं दी जानी चाहिए? भाजपा शासित दूसरे राज्यों में लाड़ली बहना योजना क्यों नहीं शुरू कर दी जा रही है? क्या मध्य प्रदेश की महिलाओं को ज्यादा जरुरत है और उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा आदि राज्यों की महिलाओं को इसकी जरुरत नहीं है?

केंद्र सरकार ने लखपति दीदी बनाने की योजना शुरू की है। पहले इसके तहत दो करोड़ महिलाओं को लखपति दीदी बनाना था लेकिन अंतरिम बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि अब तीन करोड़ लखपति दीदी बनाई जाएंगी। लखपति दीदी का मतलब यह नहीं है कि महिलाओं को लाख रुपए की मदद मिलने वाली है। उनको इस योजना के तहत सरकार छोटे छोटे लोन देगी ताकि वे अपना कारोबार शुरू करके एक लाख रुपए साल के यानी हर महीने आठ हजार रुपए की कमाई करने में सक्षम हो जाएं। इस योजना के तहत उनको डिजिटल बैंकिंग से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। जैसे किसी जमाने में बेटी पढ़ाई, बेटी बचाओ योजना का प्रचार था और बंद है उसी तरह से अब लाड़ली बहना या लखपति दीदी की योजनाएं हैं।

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Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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