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सीधे सरल, सहज नेता!

सीधे सरल, सहज नेता!

नरेंद्र मोदी ने अच्छा काम किया। भले भारत रत्न वोट के लिए बांटा हो लेकिन दो सरल चेहरे याद हो आए। मुझे मेरी शुरुआती लुटियन पत्रकारिता ताजा हो गई। कितने गजब थे अस्सी के दशक के वे दिन! कितनी जिंदादिल, जीवंत और सरल थी भारत की राजनीति! लुटियन दिल्ली में मोरारजी, चरण सिंह, नानाजी, जॉर्ज फर्नांडीज, वाजपेयी और इंदिरा गांधी सभी के ठिकाने खुले होते थे। चौधरी चरण सिंह 12 तुगलक रोड की अपनी कोठी में फर्श पर बिछे गद्दों पर बैठे मेल-मुलाकात करते थे। चौपाल लगी होती थी और वेपपलू खेलते थे। ‘जनसत्ता’ में सियासी खबरनवीसी और ‘गपशप’ कॉलम की अपनी पहचान में, जब मैं पहली बार चरण सिंह के घर गया तो उन्हें कुर्सी पर नहीं, बल्कि नीचे गद्दी पर बैठा देखा और ताश रखी हुई थी। मैं हैरान हुआ। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री का, बारीक आवाज में, ताश के लिए मुझे पूछना और घर भीड़ में भरा हुआ। सचमुच चरण सिंह का चौपाली मिजाज गजब था। वे पत्रकारों को शहरी, पूंजीवाद हिमायती, ब्राह्मण के आईने में देखते हुए भी उनका मान करते थे। और ऐसा तब सभी तरफ था। मंत्रियों-नेताओं के घरों, प्रदेशों के भवनों में नेताओं, कार्यकर्ताओं के हुजूम में पत्रकारिता मानों अड्डेबाजी। मैं जॉर्ज फर्नांडीज या बिहार भवन में कहीं जब पहली बार कर्पूरी ठाकुर से मिला तो वे जॉर्ज फर्नाडीज से ज्यादा बेतरतीब कपड़ों में दिखे, पर भले और विनम्र। हैरान था भला यह मुख्यमंत्री रहे!

चरण सिंह और कर्पूरी ठाकुर दोनों की सादगी, हिंदी प्रेम और जिंदगी जीने का देशज उत्तर भारतीय मिजाज स्वंयस्फूर्त अपनापन बनाता था। वैसे संभव है ‘जनसत्ता’ की खनक भी वजह हो। मैं लिखता रहा हूं और मेरा मानना है कि भारत की राजनीति और पत्रकारिता का स्वर्ण काल अस्सी-नब्बे के दशक थे। राजनीति में करवट का काल। नेहरू-इंदिरा-राजीव की तीन पीढ़ियों के सौभाग्य में परिवर्तन का समय तो लोहिया के ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ से जातिवाद को पंख लगने का समय। साथ ही चेहरों में पीढ़ीगत परिवर्तन का भी वक्त।

हां, उन दो दशकों में 1983 में ‘जनसत्ता’ अखबार निकलने से लेकर 1987 में बोफर्स सौदे के बवाल की अवधि लुटियन दिल्ली में नए नेताओं को उभारने वाली थी। हेमवतीनंदन बहुगुणा, राजनारायण, चरण सिंह, इंदिरा गांधी, जॉर्ज फर्नांडीज, नानाजी-वाजपेयी की जगह अचानक राजीव गांधी, वीरबहादुर, वीपी सिंह, देवीलाल, आडवाणी-गोविंदाचार्य, शरद यादव-लालू-नीतीश जैसे चेहरों की बनती धुरियां। मैं क्योंकि ‘जनसत्ता’ से पहले भी 1976 से मई 1983 तक लुटियन दिल्ली की सियासी सरगर्मियों पर लिखते हुए कांग्रेस दफ्तर, जंतर मंतर, विंडसर पैलेस, आईएनएस आदि के पार्टी दफ्तरों-पत्रकारी अड्डों को छानता रहा था तो नेताओं के चेहरों, उनके मिजाज और पर्दे के पीछे की राजनीति की किस्सागोई जाने हुए था। तभी नेता, पार्टी और उनके विचार-मिजाज को लेकर मेरे भी आग्रह-पूर्वाग्रह बन चुके थे। इसलिए उसी में फिर चरण सिंह, जगजीवन राम, हेमवतीनंदन बहुगुणा, कर्पूरी ठाकुर, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी आदि विरोधी और इंदिराकालीन कांग्रेसी नेताओं पर बेबाकी से लिखता था। याद नहीं अब की उन दिनों मधु लिमये, राजनारायण से लेकर वाजपेयी, चंद्रशेखर, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, आडवाणी, नरसिंह राव पर मैंने कितनी ‘गपशप’ लिखी होगी।

विषयांतर हो गया है लेकिन नेताओं के चेहरों की मेरी समझ में हमेशा 1977-78 में जनता पार्टी की सरकार के हस्र और अनुभवों का भारी असर रहा है। आज भले 1977 की अनुभूति बेमतलब हो लेकिन सचमुच इंदिरा गांधी की इमरजेंसी को खारिज करने का हम भारतीयों का तब फैसला अद्भुत था। इसी कारण मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार को लेकर मेरे जैसे सभी आजादीपरस्त लोगों की उम्मीदें आकाश छूती हुई थीं। जनता सरकार के गठन के समय रत्ती भर ख्याल, आशंका नहीं थी कि दसियों साल संघर्षरत गैर-कांग्रेसी दलों के नेता इतने सत्ता लोभी, जिद्दी और मूर्ख होंगे जो नादानी में सरकार खत्म करा दें। और पता है किस जैसों की साजिशों से? संजय गांधी और उनके एक क्रोनी सेठ कपिल मोहन की? जनता पार्टी की सरकार को गिराने, समाजवादियों को मोहरा बनाने, मोरारजी को बदनाम करने, जगजीवन राम के परिवार की कालिख बनवाने, चरण सिंह को लोभी बनाने के सारे काम सचमुच कांग्रेस की उस फूद्दू टीम से थे, जिसके जहर से जनता परिवार का एक भी नेता बच नहीं पाया। हर नेता इस कहावत को चरितार्थ करते हुए था कि हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा।

हां, मधु लिमये, नानाजी देशमुख, राजनारायण, जगजीवन राम, हेमवतीनंदन बहुगुणा, मोहन धारिया जैसे दिग्गजों में हर कोई पांव पर कुल्हाड़ी नहीं, बल्कि कुल्हाड़ी पर पांव मारते हुए था।

और मालूम है किस बीज सूत्र से जनता पार्टी की सरकार टूटी? जनता पार्टी में जनसंघ-आरएसएस की दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर! इसी के ताने-बाने में स्थितप्रज्ञ प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई का समाजवादियों ने जीना हराम किया तो चरण सिंह-राजनारायण ने तो इंदिरा गांधी से जा कर हाथ मिलाया। तभी वह वक्त सीधे-साधे-सरल नेताओं का गिरगिटी राजनीति का था तो आपस में लड़ कर जनसंघ और संघ का सियासी भाग्योदय करवाने वाला भी था।

विषयांतर हो गया है। पते की बात है कि न समाजवादी (कर्पूरी ठाकुर) लोभी थे और न चरण सिंह लोभी थे लेकिन लुटियन दिल्ली में कांग्रेस के लंबे  राज से पोषित प्रभुवर्ग, नौकरशाह, मीडिया मालिक, कपिल मोहन जैसे क्रोनी पूंजीवादी (अंबानी-अडानी के भी बस में नहीं है वैसी शतरंजबाजी) ने जनता पार्टी के कुनबे को आपस में ऐसा लड़ाया जो सभी नेता अपना विवेक खो बैठे।

उस समय कर्पूरी ठाकुर बहुत सक्रिय थे। वे 1977 में जनता पार्टी की जीत के बाद बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। पर उनका भी राज दिल्ली की मोरारजी जैसा ही अराज था। बावजूद इसके सादगी, सरल-सहज व्यवहार से कर्पूरी राज (एक कसौटी हिंदी भी) की एक अलग पुण्यता थी। कहने को लालू यादव और नीतीश कुमार अपने आपको कर्पूरी ठाकुर का मानस पुत्र बताते हैं लेकिन दोनों का मुख्यमंत्री बनने के बाद कभी उन जैसा व्यवहार नहीं हुआ। सत्ता में रहते हुए भी कर्पूरी ठाकुर सौ टका निर्लोभी थे। वे मनसा वाचा, कर्मणा और बतौर मुख्यमंत्री व्यवहार में लोगों की गरीबी के माफिक खुद गरीब रहते थे और छोटे-छोटे उपायों से पिछड़ों में भी अति पिछड़ों की सुध लिए हुए थे न कि यादव या कुर्मियों जैसे खाते-पीते पिछड़ों की! जबकि लालू-नीतीश दोनों का सामाजिक न्याय वोटों के लिए था और है। ये चौबीसों घंटे चेहरे से सत्ता का गरूर टपकाए रहते हैं।

फटा कोट, कुर्ता, टूटी चप्पल और बिखरे बाल कर्पूरी ठाकुर की पहचान थे। चेकोस्लोवाकिया गए तो फटा कोट पहन कर। कहते हैं राष्ट्रपति टीटो ने देखा तो नया कोट सिलवा कर दिया। ऐसे ही सीएम बनने के बाद भी जब पार्टी बैठक में नेताओं ने उनका गंदा-फटा कुर्ता देखा तो वही कुर्ते के लिए पैसे इकठ्ठे किए और चंद्रशेखर ने कर्पूरी ठाकुर को जमा हुआ पैसा देते हुए कहा इससे कुर्ता-धोती ही खरीदिए, कोई दूसरा काम नहीं करना तो कर्पूरी का निर्विकार टका सा जवाब था, इसे में सीएम रिलीफ फंड में जमा करा दूंगा।

सोच सकते हैं यह रवैया जनता में जनता का बना रहने का दिखावा था या फितरत थी? सीधे-सादे कर्पूरी ठाकुर का राज लुंज-पुंज था। संभवतया बिहार को कोई श्राप है जो सीधे-सादे, ईमानदार लोगों का राज सफल नहीं होता। मेरी यह धारणा पटना में अब्दुल गफूर, कर्पूरी ठाकुर, रामसुंदर दास बनाम लालू यादव-नीतीश कुमार के सत्ता आचरण के किस्सों को सुन कर बनी है। हालांकि बिहार में चालाक मुख्यमंत्री (लालू यादव-नीतीश कुमार) सफल होते हों, यह भी सही नहीं है। बिहार अलग ही नियति लिए हुए है। बहरहाल, कह सकते हैं कर्पूरी ठाकुर भारत की समाजवादी जमात का ईमानदार (वैचारिक-राजनीतिक तौर पर), सादा और निर्लोभी चेहरा था। उनकी राजनीति शिष्ट और मर्यादित थी।

सादे-सात्विक, शिष्ट चरण सिंह भी थे मगर धमकदार चौधरी! वे आर्यसमाज के संस्कारों में सात्विक जीवन जीते थे। मेरी धारणा है ईमानदारी में चरण सिंह से खरा (मोरारजी को छोड़कर) दूसरा कोई नहीं था। मोरारजी जैसे ही वे खुद्दार थे। लेकिन मोरारजी प्रधानमंत्री होते हुए भी सत्ता के प्रति हमेशा निःसंग, निर्लिप्त रहे वही चरण सिंह में सत्ता मोह था। गृह मंत्री का उनका कार्यकाल चौधरी वाली तान में था। तभी बतौर गृह मंत्री उन्होंने बिना वारंट के ही इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी करवा दी थी। जहां अपनी सरकार की किरकिरी करवाई वही हताश इंदिरा गांधी में वापसी का विश्वास पैदा कर दिया।

संभवतया सत्ता मोह की उनकी कमजोर नस को पकड़ कर ही राजनारायण-मधु लिमये एंड पार्टी ने चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का ताना-बाना बनाया। जनता पार्टी एक झगड़ालू घर में बदली। और फिर 1978-1979 का वह समय केंद्र के स्तर पर गिरगिटी, गंदी राजनीति का रिकार्ड बनवाने वाला था। सोचे, इंदिरा गांधी के समर्थन के भरोसे चरण सिंह प्रधानमंत्री बने। तब राजनारायण अपने को उनका हनुमान कहते थे। राम-हनुमान की उस जोड़ी के तब के जुगाड़ों और चरण सिंह के प्रधानमंत्री पद के हस्र पर न लिखा जाए तो ही अच्छा है।

चौधरी चरण सिंह की मृत्यु 1987 में हुई और कर्पूरी ठाकुर की 1988 में। खुद की भी चिंता नहीं करने वाले कर्पूरी ठाकुर ने बेटे को राजनीति से दूर रखा। उनकी विरासत के दावेदार लालू प्रसाद यादव हुए। वहीं चरण सिंह के बाद उनके बेटे अजित सिंह ने पश्चिमी यूपी की जाट चौपाल की चौधराहट पकडी और ताउम्र दिल्ली की सत्ता के लिए जतन किए। इधर गए-उधर गए लेकिन फड़फड़ाते ही रहे। जैसे प्रधानमंत्री पद पर बैठने के बाद भी दिल्ली चरण सिंह की नहीं हुई वैसा अजित सिंह के साथ भी हुआ। उसी परंपरा में अब जयंत चौधरी का मुकाम हैं! पर अपने दादा की जमीनी पुण्यता, ठोस रूख से कोसों दूर!

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Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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