journalism

  • भोंपू-पत्रकारिता का अमृत-दशक

    सब-कुछ कुछ मुट्ठियों में जा रहा है और सब ख़ामोश बैठे हैं। चंद कंगूरे सब-कुछ लील रहे हैं और सब चुप्पी साधे हैं। इनेगिने सब-कुछ हड़प रहे हैं और सब मौन धारे हैं। समाचार-कक्ष बारात के बैंड-बाजे में तब्दील हो गए हैं। बाकी मुल्क़ ‘आज मेरे यार की शादी है’ की धुन पर नाचता ही चला जा रहा है।...इतना सन्नाटा तो श्मशान में भी नहीं होता है, जितना इन दिनों हमारे मन-मस्तिष्क में है।...यह गर्व की बात है या शर्म की कि जिन तीन वर्षों में देश की 60 फ़ीसदी आबादी मुफ़्त राशन की मेहरबानी पर ज़िंदा है, उन तीन...