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भोंपू-पत्रकारिता का अमृत-दशक

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सब-कुछ कुछ मुट्ठियों में जा रहा है और सब ख़ामोश बैठे हैं। चंद कंगूरे सब-कुछ लील रहे हैं और सब चुप्पी साधे हैं। इनेगिने सब-कुछ हड़प रहे हैं और सब मौन धारे हैं। समाचार-कक्ष बारात के बैंड-बाजे में तब्दील हो गए हैं। बाकी मुल्क़ ‘आज मेरे यार की शादी है’ की धुन पर नाचता ही चला जा रहा है।…इतना सन्नाटा तो श्मशान में भी नहीं होता है, जितना इन दिनों हमारे मन-मस्तिष्क में है।…यह गर्व की बात है या शर्म की कि जिन तीन वर्षों में देश की 60 फ़ीसदी आबादी मुफ़्त राशन की मेहरबानी पर ज़िंदा है, उन तीन वर्षों में एक अकेले व्यक्ति ने, पता नहीं कौन-कौन सी तिकड़में कर के, अपनी दौलत में 13 गुना इज़ाफ़ा कर लिया और दुनिया का दूसरा सब से बड़ा अमीर बन गया?

भोंपू-पत्रकारिता के इस एक दशक ने हमें जो पाठ पढ़ाए हैं, उन की विलोम-यात्रा, अगर आरंभ भी हो गई तो, क्या अगले दो दशकों में भी अपनी मंज़िल हासिल कर पाएगी? क्या इस दौरान पनपी अपसंस्कृति को धो-पोंछ कर ख़बरनवीसी के आईने को फिर उस की पुरानी चमक लौटाना अब कभी भी संभव हो पाएगा? क्या घनघोर एकपक्षीय विमर्श के नुकीले पर्वतों को समतल बनाने की किसी अभियांत्रिकी पर अमल करने की बुलडोज़री-इच्छाशक्ति रखने वाला कोई राजनीतिक नेतृत्व अब एकाध दशक में कभी उभर भी पाएगा?

मुझे इन तमाम सवालों के जवाबों में उदासी झांकती दिखाई दे रही है। ज़मीनी हालात कुछ भी हों, आसमानी तिलिस्म के रचनाकारों की महारत के थपेड़े अभी थमते दिखाई नहीं दे रहे। अवामी-ज़ेहन में संवेदनाओं के भोथरेपन का ऐसा आलम इतिहास ने शायद ही पहले कभी देखा होगा। सब-कुछ कुछ मुट्ठियों में जा रहा है और सब ख़ामोश बैठे हैं। चंद कंगूरे सब-कुछ लील रहे हैं और सब चुप्पी साधे हैं। इनेगिने सब-कुछ हड़प रहे हैं और सब मौन धारे हैं। समाचार-कक्ष बारात के बैंड-बाजे में तब्दील हो गए हैं। बाकी मुल्क़ ‘आज मेरे यार की शादी है’ की धुन पर नाचता ही चला जा रहा है। समाचार-संसार के इस यार की शादी हर रोज़ हो रही है। हम-आप टुकटुक आंखों से यह नज़ारा देख रहे हैं।

भोंपू पहले भी होते थे। लेकिन उन भोंपुओं से इतनी कर्कश ध्वनि नहीं निकला करती थी। भोंपुओं की क़लम अपनी स्याही से थोड़ी बेइमानी तो करती थी, लेकिन उनकी क़लम से रक्त नहीं बहा करता था। भोंपुओं की ज़ुबानें इरादतन थोड़ा-बहुत बहका तो करती थीं, लेकिन न तो चरण-चुंबन के लिए आज की तरह लपलपाती थीं और न उन से ऐसा ज़हर टपका करता था। भोंपुओं का भी पहले कुछ दीन-ईमान हुआ करता था। भोंपुओं की भी पहले एक आचरण संहिता हुआ करती थी। लेकिन आज भोंपुओं का दुराचार-दौर है।

पहले भोंपुओं की ऐसी सांगठनिक शक़्ल नहीं हुआ करती थी। पहले वे इस तरह संस्थायन स्वरूप में नहीं होते थे। पहले कभी वे इतने प्रणालीबद्ध नहीं थे। पहले के भोंपुओं की आमतौर पर अपनी-अपनी एकल गुमटियां होती थीं। इन विकेंद्रित ठीयों पर पसंदीदा गोल-गप्पों के थाल सजे रहते थे। चूंकि ऐसी गुमटियों की तादाद भी मामूली होती थी तो उन के किए-धरे का असर भी कैसे हिमालयी होता? लेकिन अब आसुरी-केंद्रीयकरण का ज़माना है। यह महाकाय परिचालन तंत्र का युग है। सो, आज के भोंपू एक दैत्याकार निगमित व्यवस्था के नौनिहाल हैं। वे हर सुबह एक सुर में अपने अमंगलाचरण का पाठ शुरू करते हैं और हर रात अपनी अघोर अग्नि में बलि-क्रिया संपन्न करने के बाद ही सोते हैं।

इसलिए आज के भोंपुओं से हर क़िस्म की सकारात्मकता को बेहिसाब खतरा है। इसीलिए एक दशक में तमाम मीठी झीलों में नमक घुल गया है। इसीलिए बचा-खुचा सब तबाह होने के आसार हमारी खिड़कियों के बाहर मंडरा रहे हैं। जिन्हें लगता है कि इन विनाशक भोंपुओं से वे प्रतिभोंपुओं के ज़रिए निपट लेंगे, वे नादान हैं। भोंपू का जवाब प्रतिभोंपू कभी नहीं हो सकता। भोंपू-कर्म तो अपने आप में ही नत्वर्धक प्रक्रिया है। बाज़ारवादी संसार ने भोंपू की महिमा से लोगों को अभिभूत कर रखा है। मगर बाज़ारू भोंपू के इस्तेमाल से सामाजिक बरामदों में एकदम प्रतिकूल नतीजे निकलते हैं। और, कोई माने-न-माने, राजनीति बाज़ार का नहीं, मूलत़ः सामाजिकता का विषय है। जो सियासत को बाज़ारवाद की नियमावली से संचालित करना चाहते हैं, उन के हाथ से उस्तरा अगर हम ने जल्दी नहीं छीना तो वे हमारा गला अंततः पूरी तरह नही रेत देंगे तो और क्या करेंगे?

इतना सन्नाटा तो श्मशान में भी नहीं होता है, जितना इन दिनों हमारे मन-मस्तिष्क में है। अगर आंच का कोई भी तापमान हमारे मन को नहीं खदका पा रहा है तो क्या हमें सोचना नहीं चाहिए कि आख़िर इतने पत्थर के हम क्यों-कर हो गए हैं? सारी मनमानियां हम बुत बने क्यों झेलते चले जा रहे हैं? यह गर्व की बात है या शर्म की कि जिन तीन वर्षों में देश की 60 फ़ीसदी आबादी मुफ़्त राशन की मेहरबानी पर ज़िंदा है, उन तीन वर्षों में एक अकेले व्यक्ति ने, पता नहीं कौन-कौन सी तिकड़में कर के, अपनी दौलत में 13 गुना इज़ाफ़ा कर लिया और दुनिया का दूसरा सब से बड़ा अमीर बन गया? हम इस पर गर्व करें या शर्म से डूब मरें कि जिस देश में करोड़ों लोगों के सिर पर छत नहीं है, उस में एक व्यक्ति अपने छोटे-से परिवार के साथ चार लाख वर्गफुट के उस महल में रहता है, जिस की कीमत बीस अरब रुपए है?

यह सब भोंपुओं के सौजन्य से संभव हुआ है। थोथी उपलब्धियों का उदीयमान भोंपुओं ने समय-समय पर ऐसा गुणगान किया कि लोगों की निग़ाह से गुण ओझल हो गए और गान गले पड़ गया। देश के 1 लाख 22 हज़ार लघु-मध्यम उद्योगों में से क़रीब 90 हज़ार नोटबंदी के बाद स्थायी/अस्थायी तौर पर बंद हो गए हैं। कृषि क्षेत्र की विकास दर सात से घट कर ढाई-साढ़े तीन प्रतिशत के बीच रह गई है। मानव-सूचकांक के सारे मानक धड़ाम से नीचे गिरते जा रहे हैं। लेकिन मुंबई शेयर बाज़ार का सूचकांक, नरेंद्र भाई मोदी के रायसीना पर्वत पर आगमन के बाद, 25 हज़ार से बढ़ कर 63 हज़ार का आंकड़ा पार कर गया है।

अर्थव्यवस्था रपटती जाए और शेयर बाज़ार आकाषगामी होता जाए, यह नरेंद्र भाई हैं तो मुमक़िन है। एक दशक में शेयर सूचकांक ढाई गुना बढ़ा है। भोंपुओं का समवेत स्वर अगले एक दशक में सेंसेक्स को दो लाख के आंकड़े पर पहुंचाने में जुटा हुआ है। जिस देश के हुक्मरान वेंटिलेटर पर पड़ी अर्थव्यवस्था के दौर में भी सेंसेक्स की मांसपेशियों को उत्तरोत्तर इतना गठीला बनाए रखने की कलाबाज़ियां दिखाना जानते हों, वहां कुछ भी कहां मुश्क़िल है? भला इस से क्या होता है कि एक अरब अड़तीस करोड़ लोगों के मुल्क़ में शेयर बाज़ार के आम निवेशकों की संख्या महज़ सवा करोड़ के आसपास ही है। सारा खेल तो चंद बड़ी कंपनियों के इर्दगिर्द घूम रहा है। ऐसे ही थोड़े कोई अंबानी-अडानी बन जाता है! आम निवेशक तो झक्कूबाज़ी के झूले पर पेंग भरने के लिए हैं।

सो, भोंपुओं से मुक्ति का अभियान चलाए बिना अब कुछ नहीं होने वाला। लेकिन यह भी मत सोचिए कि आप अभियान चलाएंगे तो पत्रकारिता का संसार भोंपू-मुक्त हो जाएगा। जब मौजूदा पत्रकारिता ही भोंपू बन गई है तो उसे आप किन भोंपुओं से मुक्त कराएंगे? भोंपू ख़ुद कैसे भोंपू-मुक्त होगा? भोंपू का कायाकल्प भला कैसे हो सकता है? भोंपू अपने भोंपू-पन को कैसे तिरोहित कर सकता है? भोंपू परकाया-प्रवेश भी कर ले तो भोंपू ही रहेगा। इसलिए भोंपू-मुक्त सृष्टि की रचना करने के चक्कर में मत पड़िए। भोंपू थे, भोंपू हैं और भोंपू रहेंगे। आप की बेचैनी सिर्फ़ इसलिए है कि भोंपू अभी किसी और की गोद में खेल रहे हैं। आप के वैचारिक झरने उन्हें आकर्षित करने में नाकाम हैं। विचार से भोंपुओं को कोई लेना-देना नहीं है। बुद्धि के तो भोंपू जन्मजात शत्रु होते ही हैं। जिस दिन आप पंजीरी के लड्डू बिखेरने लायक़ हो जाएंगे, भोंपुओं के ग़िरोह उन्हें लपकने टूट पड़ेंगे। जब तक वह दिन न आए कि आप इस लायक़ हों, तब तक इंतज़ार कीजिए। हो सके तो तब तक वह दिन लाने की थोड़ी उठक-बैठक भी लगाइए। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)

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By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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