मुद्दा यह है कि क्या आरक्षण से गरीबी या शैक्षिक पिछड़ेपन की समस्या दूर हो जाएगी? क्या ऐसा पहले से आरक्षण प्राप्त समुदायों में हो गया है? तमाम अध्ययन और अनुभव बताते हैं कि ऐसा नहीं हुआ है।
महाराष्ट्र सरकार ने मराठा समुदाय को आरक्षण देने के लिए विधानसभा से विधेयक पारित करा लिया है। यह प्रावधान इस रूप में किया गया है, जिससे ओबीसी समुदाय नाराज ना हो। मराठा संगठन ओबीसी श्रेणी के अंदर आरक्षण मांग रहे थे, लेकिन राज्य सरकार ने उनके लिए अलग से आरक्षण का प्रावधान किया है। इस तरह ये आरक्षण 50 प्रतिशत की उस सीमा से बाहर होगा। यह सीमा सुप्रीम कोर्ट ने लगा रखी है। वैसे यह सीमा आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान के साथ पहले ही टूट चुकी है। तो उसे मिलाकर अब महाराष्ट्र में सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में कुल आरक्षित सीटों की संख्या 70 प्रतिशत हो जाएगी। तो क्या नई व्यवस्था न्यायिक परीक्षण में खरी उतरेगी? मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने कहा है कि चूंकि कई राज्यों में 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण लागू किया गया है, तो महाराष्ट्र में भी यह टिकाऊ होगा। हाल ही में बिहार में आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 75 प्रतिशत कर दी गई है। लेकिन मराठा नेता मनोज जरांगे पाटिल को शिंदे की बात पर भरोसा नहीं है।
यह भी पढ़ें: क्यों किसानों की मांगे नहीं मानते?
पाटिल ने कहा है कि महाराष्ट्र सरकार ने अलग श्रेणी के तहत जो आरक्षण दिया है, वह मराठा समुदाय को मंजूर नहीं है। मराठों को ओबीसी कोटे से ही आरक्षण चाहिए। महाराष्ट्र में मराठा समुदाय की आबादी 28 प्रतिशत है। यह समुदाय राजनीतिक तौर पर राज्य में सबसे प्रभावशाली माना जाता है। इसके बावजूद मराठा समुदाय में गरीबी रेखा से नीचे के 21.22 प्रतिशत परिवार हैं। मुद्दा यह है कि क्या आरक्षण से गरीबी या शैक्षिक पिछड़ेपन की समस्या दूर हो जाएगी? क्या ऐसा पहले से आरक्षण प्राप्त समुदायों में हो गया है? तमाम अध्ययन और अनुभव बताते हैं कि ऐसा नहीं हुआ है। बुनियादी वजह यह है कि आरक्षण की हर लड़ाई का मकसद मौजूद अवसरों में अधिक हिस्सा पाना है। जबकि ये अवसर इतनी संख्या में मौजूद नहीं हैं, जिनसे सबकी विकास एवं बेहतर जीवन की आकांक्षा पूरी हो। असल मुद्दा ऐसी आर्थिकी और विकास नीति का है, जिनसे मांग के अनुरूप ऐसे अवसर बढ़ें। लेकिन ये बात चर्चा से बाहर है।