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फिर याद आई गांव सुरक्षा समितियां

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गांव सुरक्षा समितियों की आज भी कितनी अधिक आवश्यकता है यह राजौरी की ताज़ा घटना ने बता दिया है। उल्लेखनीय है कि राजौरी के ढांगरी (टांगरी) गांव में इस साल के पहले ही दिन आतंकवादियों ने जो कहर बरपाया उसमें दो मासूम बच्चों सहित छह लोगों की मौत हो गई थी। आतंकवादियों द्वारा किए गए इस हमले में और भी अधिक नुक्सान हो सकता था अगर गांव की लगभग भंग हो चुकी गांव सुरक्षा समिति के एक पुराने सदस्य बालकृष्ण ने सूझबूझ दिखाते हुए अपनी थ्री नॉट थ्री राईफल से गोलियां न चलाई होतीं।

हाल में जम्मू-कश्मीर के सीमावर्ती राजौरी ज़िले में जिस तरह से आतंकवादियों ने निर्दोष लोगों को निशाना बनाया है, उसके बाद, एक बार फिर से गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) को लेकर चर्चा शुरू हो गई है। गांव सुरक्षा समितियों की आज भी कितनी अधिक आवश्यकता है यह राजौरी की ताज़ा घटना ने बता दिया है।उल्लेखनीय है कि राजौरी के ढांगरी (टांगरी) गांव में इस साल के पहले ही दिन आतंकवादियों ने जो कहर बरपाया उसमें दो मासूम बच्चों सहित छह लोगों की मौत हो गई थी। आतंकवादियों द्वारा किए गए इस हमले में और भी अधिक नुक्सान हो सकता था अगर गांव की लगभग भंग हो चुकी गांव सुरक्षा समिति के एक पुराने सदस्य बालकृष्ण ने सूझबूझ दिखाते हुए अपनी थ्री नॉट थ्री राईफल से गोलियां न चलाई होतीं। बालकृष्ण द्वारा की गई गोलीबारी की वजह से आतंकवादी भाग खड़े हुए।

लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि ढांगरी का आतंकवादी हमला शायद संभव ही नही हो पाता अगर कुछ समय पहले ढांगरी सहित कई गांवों की सुरक्षा समितियों को भंग या निष्क्रिय नहीं कर दिया गया होता। ढांगरी गांव की स्थानीय सुरक्षा समिति से पिछले दिनों ही हथियार वापस ले लिए गए थे।

उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ समय से गांव सुरक्षा समितियों को निष्क्रिय  करने की एक प्रक्रिया चलाई जा रही है। कई इलाकों में इन समितियों को लंबे समय से निष्क्रिय कर दिया गया है जबकि कुछ जगह उनका पुनर्गठन किया जा रहा है। यही नही गांव सुरक्षा समितियों को अब एक नया नाम और रूप भी दिया जा रहा है, जिसे लेकर विवाद बना हुआ है।

दरअसल गांव सुरक्षा समितियों को दोबारा से मजबूत और सक्रिय करने को लेकर लंबे समय से रक्षा विशेषज्ञ सुझाव देते रहे हैं। मगर नौकरशाही किसी न किसी तरह अड़ंगा डालती रही है। यहां तक कि गांव सुरक्षा समितियों को पूरी तरह से भंग कर देने की राय भी समय-समय पर दी जाती रही है। जबकि इस अति महत्वपूर्ण मुद्दे पर राजनीतिक नेतृत्व की अदूरदर्शिता भी सामने आती रही है। यह एक विडंबना ही है कि नब्बे के दशक में गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के गठन को लेकर बेहद मुखर रहने वाली भारतीय जनता पार्टी के शासनाकाल में ही अब इन समितियों को कमजोर और समाप्त करने जैसे सुझाव सामने आते जा रहे हैं।

कैसे और कब बनी गांव सुरक्षा समितियां

उल्लेखनीय है कि गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) को गठित करने का विचार उस समय सामने आया था जब नब्बे के दशक में जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद अपने पूरे चरम पर था। उस समय कश्मीर घाटी के साथ-साथ जम्मू क्षेत्र के डोडा, किश्तवाड़, भद्रवाह, रामबन, बनिहाल, ऊधमपुर, कठुआ,पुंछ व राजौरी के इलाकों में आतंकवाद फैलने लगा था। कश्मीर के मुकाबले यह इलाका काफी बड़ा था और घने जंगलों व दुर्गम पर्वत-श्रृखलांओं में रहने वाली आबादी बिखरी हुई थी। कोई भी गांव 20-25 घरों से ज्यादा का नही था।

इस स्थिति में सरकार के समक्ष उन लाखों लोगों को सुरक्षा मुहैया करवाना एक बड़ी चुनौती थी जो घने जंगलों से घिरे दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में रहते थे। दूर-दराज के गांवों में रहने वाले यह लोग लगातार आतंकवादियों के निशाने पर रहते थे। भौगोलिक परिस्थितियां ऐसी थी कि सरकार चाह कर भी इन इलाकों में रहने वालों को सुरक्षा उपलब्ध नही करवा सकती थी। प्रशासन की ऐसे गांवों तक पहुंच संभव ही नही थी। माहौल ऐसा था कि आए दिन होने वाले आतंकवादी हमलों  की वजह से लोग दहशत में रहने लगे।

हालात की गंभीरता को देखते हुए आखिर सरकार ने एक दूरगामी फैसला लेते हुए 1995 में हर गांव में गांव सुरक्षा समितियों को गठित कर दिया। इस योजना के लिए केंद्र सरकार ने धन उपलब्ध करवाया।

स्थानीय लोगों ने इस निर्णय का भरपूर स्वागत किया और स्वेच्छा से लगभग पूरे जम्मू संभाग के सभी गांव की सुरक्षा समितियों में शामिल होने लगे। यह लोगों की बहादुरी का एक बड़ा प्रमाण था कि लोगों ने आतंकवाद के कारण अपने इलाकों से पलायन करने की जगह अपनी व अपने गांव की सुरक्षा का ज़िम्मा उठाना शुरू कर दिया। सेना व पुलिस ने इन समिति के सदस्यों को शुरूआती प्रशिक्षण दिया। बड़ी संख्या में पूर्व सैनिकों ने भी गांव सुरक्षा समितियों में शामिल होने की पहल की और अपने-अपने गांव के अन्य साथियों को आतंकवादियों से लड़ने में मदद दी।

कुछ ही दिनों में नतीजे सामने आने लगे और आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में गांव सुरक्षा समितियां एक अहम भूमिका निभाने लगीं। एक समय ऐसा भी आया जब गांव सुरक्षा समितियां सुरक्षा बलों का एक महत्वपूर्ण अंग बन गईं। गांव सुरक्षा समितियों द्वारा दी गई जानकारी और मदद की बदौलत सुरक्षा बलो ने देखते ही देखते आतंकवाद के खिलाफ ज़बरदस्त अभियान छेड़े और  सफलताएं हासिल कीं।

कैसे करती हैं काम गांव सुरक्षा समितियां?

प्रत्येक गांव सुरक्षा समिति में आठ सदस्य रहते हैं। कुछ मामलों में यह संख्या दस भी हो सकती है। गांव सुरक्षा समिति के सदस्य अपने-अपने इलाकों में आतंकवादियों की गतिविधियों पर लगातार नज़र बनाए रखते हैं और सुरक्षा बलों के लिए ‘फ्रंट लाइन’ की तरह काम करते हैं। किसी भी अनजान या संदिग्ध को देखते ही फौरन सुरक्षा बलों की करीबी चौकी को सूचना दी जाती है।

सुरक्षा बलों के आने तक संदिग्धों पर कड़ी नज़र रखते हैं। लेकिन कई बार सुरक्षा बलों के पहुंचने से पहले ही बकायदा मुठभेड़ शुरू हो जाती है। ऐसे कई मामले घटित हो चुके हैं यहां पर गांव सुरक्षा समिति के सदस्यों ने सुरक्षा बलों के पहुंचने से पहले खुद मार्चा संभाला और आतंकवादियों को ढेर कर दिया। गांव सुरक्षा समिति के सदस्यों ने आतंकवादियों के खिलाफ अभियान खुद भी संचालित किए और कामयाबियां भी हासिल की हैं। विभिन्न गांव सुरक्षा समितियों के सैकड़ों सदस्य आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में भी शहीद हो चुके हैं।

समितियों को लेकर बदला सरकार का रुख

मगर जैसे ही जम्मू-कश्मीर में हालात बदले और आतंकवाद थोड़ा कम हुआ, गांव सुरक्षा समितियों को लेकर सरकारों का रुख भी बदलना शुरू हो गया। वक्त के साथ गांव सुरक्षा समितियां, नौकरशाही और राजनीतिक नेतृत्व को अखरने लगी हैं। आज गांव सुरक्षा समितियों को लेकर जिस तरह से निर्णय लिए जा रहे हैं उसे देख कर यही कहा जा सकता है कि ऐसे मामलों को लेकर अक्सर किस तरह से हमारी सारी व्यवस्था असंवेदनशील हो जाती है। जिन लोगों ने कठिन परिस्थितियों में आतंकवाद से लोहा लिया, आज उन्हीं को अपने हक के लिए  अदालतों की शरण लेनी पड़ रही है।

लंबे समय से गांव सुरक्षा समितियों का पारिश्रमिक का मुद्दा अभी हल भी नही हो पाया था कि सरकार ने कईं जगह गांव सुरक्षा समितियों को निष्क्रिय करना शुरू कर दिया। गांव सुरक्षा समितियां लंबे समय से अत्याधुनिक हथियार दिए जाने की मांग कर रही थीं मगर हाल ही में एक आदेश में उनसे उनकी पुरानी थ्री नाट थ्री भी को भी वापस सबंधित थानों में जमा करवाने को बोल दिया गया। कई जगह उनके हथियारों के लाइसेंस का नवीनीकरण रोक दिया गया। अपनी मांगों को लेकर गांव सुरक्षा समितियों के सदस्यों को बकायदा सड़कों पर भी उतरना पड़ा मगर सरकार की ओर से कोई मदद नही मिली।

अभी मांगों का मामला अटका ही हुआ था कि सरकार ने गांव सुरक्षा समितियों को भंग कर नया रूप व नाम देकर एक नई योजना पर अमल करना शुरू कर दिया। सरकार की नई योजना के अनुसार अब गांव सुरक्षा समितियों को गांव सुरक्षा समूह का नाम दिया गया है।

क्या है सारा विवाद ?

केंद्रीय सरकार द्वारा कुछ देर पहले गांव सुरक्षा समितियों को एक तरह से पुनर्गठित करने जो कदम उठाया था वह मामला अब जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में विचाराधीन है। फिलहाल उच्च न्यायालय ने गांव सुरक्षा समूह योजना पर रोक लगा दी है। उल्लेखनीय है कि गांव सुरक्षा समितियों में काम करने वाले स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) ने चुनौती दे रखी है। गांव सुरक्षा समितियों को गांव सुरक्षा समूह में बदले जाने का सारा मामला आखिर है क्या? मामला बेहद उलझा हुआ है और गांव सुरक्षा समितियों में काम करने वाले सामान्य सदस्यों व स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) में अविश्वास पैदा कर रहा है। अगर देखा जाए तो समितियों में काम करने वाली दोनों ही श्रेणियों के सदस्यों को नई योजना से कोई लाभ नहीं हो रहा है।

सारा विवाद गांव सुरक्षा समिति के सदस्यों के वेतन को लेकर शुरू हुआ। यह सारा मुद्दा कहीं न कहीं हमारी नौकरशाही और राजनीतिक नेतृत्व की अधूरदर्शिता का परिचय भी देता है। आईए इस मामले को समझने की कोशिश करते हैं। गांव सुरक्षा समितियों को थोड़ा व्यवस्थित करने के उद्देश्य से कुछ साल पहले सभी समितियों के आठ सदस्यों में से तीन को विशेष पुलिस अधिकारी यानी स्पेशल पुलिस आफिसर (एसपीओ) चुना गया। इन स्पेशल पुलिस ऑफिसर को बकायदा बैल्ट नंबर और पुलिस विभाग की ओर से पहचान पत्र तक दिया गया। गांव सुरक्षा समितियों के सदस्यों को इन्ही तीन विशेष स्पेशल पुलिस ऑफिसर के अधीन रखा गया। उस समय के रणनीतिकारों का मानना था कि धीरे-धीरे सभी सदस्यों को पुलिस विभाग में विशेष पुलिस अधिकारी के रूप में नियमित कर दिया जाएगा। मगर वक्त के साथ रणनीति भी बदली, प्राथमिकताएं भी और सरकार भी।

उल्लेखनीय है कि स्पेशल पुलिस ऑफिसर को अनुबंध के आधार पर जम्मू-कश्मीर पुलिस बल में शामिल किया जाता है और उन्हें एकमुश्त राशि मानदेय  के रूप में दी जाती है। स्पेशल पुलिस ऑफिसर अन्य किसी सुविधा के पात्र नही होते हैं। यह एक तरह की अस्थाई व्यवस्था है।

गांव सुरक्षा समितियों के तीन सदस्यों को जब बकायदा स्पेशल पुलिस ऑफिसर  बनाया गया तो उनके साथ बकायदा शर्त रखी गई कि सभी स्पेशल पुलिस ऑफिसर मिलने वाले पारिश्रमिक को शेष सभी समिति सदस्यों के साथ बराबर बांटेंगे। कुछ देर तक ऐसा हुआ भी और एसपीओ अपने साथी गांव सुरक्षा समितियों के सदस्यों के साथ अपना वेतन बांटते भी रहे। लेकिन जैसे ही स्पेशल पुलिस ऑफिसर का पारिश्रमिक बढ़ा और नई व्यवस्था के तहत नकद की जगह पैसा सीधे स्पेशल पुलिस ऑफिसर के बैंक खाते में आने लगा तो गांव सुरक्षा समितियों के अन्य सदस्यों में पैसा बंटना बंद हो गया।

गांव सुरक्षा समिति के सभी सदस्यों को पहले प्रति व्यक्ति 1500 रुपए मिलते थे। बाद में स्पेशल पुलिस ऑफिसर की नियुक्ति होने के बाद प्रति सदस्य 3000 रुपए मिलने लगे। फिर प्रति सदस्य 9000 रुपए मिलना तय हुआ। कुछ समय बाद इसे बढ़ाकर 12000 रुपए प्रति सदस्य तक कर दिया गया। बाद में इसे भी बढ़ा दिया गया और प्रत्येक स्पेशल पुलिस ऑफिसर को 18000 रुपए मिलने लगे। यानी आठ सदस्यों वाली गांव सुरक्षा समिति के तीन सदस्यों को 18000 रुपए के हिसाब से 54000 रुपए मिल रहे थे। और यह पैसा गांव सुरक्षा समिति के सभी सदस्यों में बराबर बंटता रहा। इस प्रक्रिया में एक झोल यह था कि पैसा बांटना है या नही यह सब स्पेशल पुलिस ऑफिसर पर निर्भर करता था।

पैसा जब सरकारी खाते से सीधा स्पेशल पुलिस ऑफिसर के बैंक खाते में आने लगा तो शिकायते सामने आने लगी कि स्पेशल पुलिस ऑफिसर शेष सदस्यों को पैसा देने से इंकार कर रहे हैं। इस वजह से यहां गांव सुरक्षा समिति के सदस्यों में विवाद होने लगा। कई मामलों में कई वर्षों से सभी सदस्यों में पैसा बंटा ही नही।

यह सब गलत नीति के कारण हुआ। इसी गलती को सुधारने के लिए सरकार ने गांव सुरक्षा समितियों (विडीसी) को भंग कर गांव सुरक्षा समूह (वीडीजी) बनाने की योजना लाई, लेकिन सारा मामला पहले से और अधिक उलझ गया।

इस योजना के तहत गांव सुरक्षा समितियों के सभी सदस्यों को एक समान पैसा देने का प्रावधान है। नई योजना में स्पेशल पुलिस ऑफिसर को भी अन्य सदस्यों के बराबर पारिश्रमिक मिलेगा। अब नए नियमों के तहत सभी को मात्र चार हज़ार रुपए मिलने वाले हैं। इस सारे मामले का सार यह है कि एक समस्या को हल करते-करते सरकार ने दूसरी समस्या खड़ी कर दी। स्पेशल पुलिस ऑफिसर ने सरकार की प्रस्तावित योजना को अदालत में चुनौती दे रखी  है। फिलहाल जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने योजना पर रोक लगा दी है

गांव सुरक्षा समितियों के सदस्य अपने लिए कम से कम 12000 रुपये मासिक का पारिश्रमिक चाहते हैं। उनका मानना है कि 4000 रुपये मासिक पारिश्रमिक किसी भी तरह से न्यायसंगत नही है। जबकि स्पेशल पुलिस ऑफिसर अपने आप को पुलिस विभाग में नियमित किए जाने के पक्ष में हैं।

कुल हैं 4,125 गांव सुरक्षा समितियां

कुछ समय पहले के आंकड़ों के अनुसार कुल 4,125 गांव सुरक्षा समितियां हैं जिनमें लगभग 27,924 सदस्य हैं। यह समितियां जम्मू क्षेत्र के लगभग सभी दस जिलों के विभिन्न गांव में सक्रिय रही हैं। सबसे ज़्यादा डोडा जिले में गांव सुरक्षा समितियां काम कर रही थीं। डोडा जिले में कुल 660 गांव सुरक्षा समितियों में कुल 6521 सदस्य सक्रिय थे। इसी तरह से 5,818 लोग सीमावर्ती राजौरी जिले में काम कर रहे थे। जबकि रियासी जिले में 5,730  वीडीसी सदस्य विभिन्न गांव में सक्रिय थे। इसी तरह से किश्तवाड जिले में 3,287 गांव सुरक्षा समितियों के सदस्य थे। इसके अतिरिक्त रामबन, कठुआ, उधमपुर, पुंछ व राजौरी जिलों में भी गांव सुरक्षा समितियों (विडीसी) सक्रिय रही हैं  । पूरी कश्मीर घाटी में इस तरह की कोई गांव सुरक्षा समिति नही है। उल्लेखनीय है कि कश्मीर में कभी भी किसी भी गांव सुरक्षा समितियां गठित नही हो पाईं।

By मनु श्रीवत्स

स्वतंत्र पत्रकार जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ-अनुभवी पत्रकारों में की 33 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय। खेल भारती,स्पोर्ट्सवीक और स्पोर्ट्स वर्ल्ड में प्रारंभिक खेल पत्रकारिता। फिर जम्मू-कश्मीर के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार ‘कश्मीर टाईम्स’, और ‘जनसत्ता’ के लिए लंबे समय तक जम्मू-कश्मीर को कवर किया। दस वर्ष जम्मू के सांध्य दैनिक ‘व्यूज़ टुडे’ के संपादक भी किया। इन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता और ‘नया इंडिया’ के लिए लेखन।

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