सरकार से जब भी टैक्स बढ़ने या ज्यादा से ज्यादा वस्तुओं और सेवाओं पर टैक्स लगाने के बारे में पूछा जाता है तो उसका एक सपाट जवाब होता है कि वह टैक्स के पैसे का इस्तेमाल जनता की भलाई के लिए कर रही है। कैसे? जवाब है सरकार टैक्स के पैसे से बुनियादी ढांचे का विकास कर रही है। फिर सोशल मीडिया में देश की जनता को धिक्कारते हुए ये पोस्ट वायरल कराए जाते है कि देश के लोग चाहते हैं कि ट्रेन दुर्घटना नहीं हो लेकिन ट्रेन का किराया बढ़ाया जाना कबूल नहीं है। लोग चाहते हैं कि सड़कें अच्छी बनें पर उसके लिए पैसा चुकाने को तैयार नहीं हैं। मोदी सरकार में इस तरह के पोस्ट का क्यों भरमार है? क्योंकि इससे सरकार की वसूली सही ठहरती है तो मुफ्तखोरी का आरोप लगा कर जनता को चुप करा दिया जाता है। असलियत बिल्कुल अलग है।
गौर कर इस मिसाल पर। सरकार कहती है कि वह टैक्स के पैसे सड़क बनवा रही है। लेकिन उसी सड़क पर चलने के लिए आम नागरिक को चार बार अलग अलग तरह से पैसे देने होते हैं। गाड़ी की कीमत पर लगने वाले भारी भरकम टैक्स को छोड़ दें तब भी गाड़ी खरीदने के बाद रजिस्ट्रेशन के समय रोड टैक्स जमा कराया जाता है। उसके बाद पेट्रोल या डीजल की कीमत पर 50 फीसदी से ज्यादा टैक्स चुकाना होता है। इस टैक्स के बाद लोगों को पेट्रोल और डीजल पर प्रति लीटर के हिसाब से रोड इंफ्रास्ट्रक्चर का सेस यानी उपकर भी देना होता है। अंत में सड़क पर भारी भरकम टोल टैक्स चुकाना होता है, जो अक्सर किसी निजी कंपनी को जाता है और उस पर भी सरकार जीएसटी वसूलती है। सोचें, एक मुर्गी को कितनी बार हलाल किया जाता है! असल में आजकल सरकार टैक्स के पैसे से बुनियादी ढांचे का विकास नहीं कर रही है। उसने बुनियादी ढांचे का पीपीपी या हाइब्रिड मॉडल निकाला है, जिसमें सरकार पैसा नहीं देती है, बल्कि निजी कंपनियां बैंकों से कर्ज लेकर बुनियादी ढांचे का विकास करती हैं और उसके इस्तेमाल के लिए जनता से पैसे वसूलती हैं।
यह बात सिर्फ सड़क परिवहन के मामले में नहींहै, हर जगह देखी जा सकती है। एक एक करके हवाईअड्डे निजी होते जा रहे हैं। उन हवाईअड्डों पर लगने वाला यूजर चार्ज कई गुना बढ़ा दिया गया है। इसी तर्ज पर रेलवे स्टेशनों का भी कथित तौर पर विकास हो रहा है।उन्हें सुंदर बनाया जा रहा है। उसके इस्तेमाल के लिए जनता से अलग पैसे वसूले जा रहे हैं। देश भर के रेलवे स्टेशनों का सौंदर्यीकरण हो रहा है। यह काम निजी कंपनियां अपने पैसे से या बैंकों से लोन लेकर कर रही हैं। कुछ प्रोजेक्ट्स में जरूर सरकार भी पैसे दे रही है, लेकिन ज्यादातर प्रोजेक्ट निजी कंपनियां खुद पूरा कर रही हैं। बदले में लोगों से स्टेशनों के इस्तेमाल के लिए यूजर चार्ज वसूला जाएगा। प्लेटफॉर्म टिकट कई गुना बढ़ गए है। किराए में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है। नई ट्रेनें चलाई जा रही हैं तो उसमें फ्लेक्सी फेयर लागू किया गया है, जिससे ट्रेन का किराया हवाईजहाज के किराए की तरह बढ़ रहा है।
लेकिन लोगों को क्या समझाया जा रहा है? उन्हें अच्छी सुविधा मिल रही है तो कुछ पैसे चुकाने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए। सोचें, ये दोनों बातें कैसे हो सकती हैं? एक तरफ जनता के पैसे से अच्छी सुविधा विकसित हो रही है तो दूसरी तरफ उसी सुविधा के इस्तेमाल के लिए जनता से शुल्क वसूली जा रहा है! फिर भले वह अडानी की जेब में जाए या किसी ठेकेदारी की जेब में। जो सुविधा निजी कंपनियां अपने पैसे से विकसित कर रही हैं उसके लिए सरकार उनको दूसरी सुविधाएं दे रही है। स्टेशनों पर रेलवे की जमीन का कारोबारी इस्तेमाल बढ़ रहा है। बावजूद इसके कंपनियां जनता से यूजर चार्ज वसूलती हैं। उस पर सरकार अलग जीएसटी लेती है। इस तरह से यह एक दुष्चक्र बन गया है, जिसमें जनता कदम कदम पर किसी न किसी तरह से सेवा शुल्क चुका रही है। अपनी जेबे खाली कर रही है।