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नेहरू विकास दर कहने से हकीकत नहीं बदल जाएगी

रघुराम राजन ने ज्योंहि हिंदू विकास दर का जिक्र किया तो तमाम तरह के लंगूर उन पर टूट पड़े। अमृतकाल के सपने में जी रहे भारतीय स्टेट बैंक ने भी उनके आकलन को गलत और पक्षपातपूर्ण बताया है। गौरतलब है कि राजन रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे हैं। आरबीआई के अलावा कई हिंदू संगठनों, सत्तारूढ़ भाजपा के नेताओं और कई प्रकाशनों में उनके आकलन पर सवाल उठाया। यहां तक कहा गया है कि रघुराम को हिंदू विकास दर की बजाय नेहरू विकास दर कहना चाहिए था। क्योंकि आजादी के बाद पहले चार दशक तक तो जवाहर लाल नेहरू की ही आर्थिक नीतियां चली। जो भी विकास दर थी वह उनकी नीतियों के कारण थी। यह कहते हुए भी नेहरू का मजाक उड़ाया गया कि उनके समय तो होटल भी सरकार चलाती थी। टाटा, बिड़ला को भी बड़ा काम करने की इजाजत नहीं होती थी।

सवाल है कि आज अगर देश की विकास दर साढ़े तीन से चार फीसदी के बीच है और आजादी के बाद तीन दशक तक देश की विकास दर इतनी ही रही थी तो उसे हिंदू विकास दर कहें या नेहरू विकास दर, उससे क्या फर्क पड़ता है? ऐसा तो नहीं है कि कम विकास दर को हिंदू विकास दर कहने से हिंदू अपमानित हो रहे हैं और नेहरू विकास दर कह देने से हिंदुओं का गौरवगान होएगा? असलियत यह है कि देश की अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है। उस पर चिंता की बजाय हिंदुवादी संगठनों को हिंदू विकास दर कहे जाने पर आपत्ति है।

यह अचानक नहीं है कि रघुराम राजन के बयान के बाद राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने बताया कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत की अर्थव्यवस्था सबसे बड़ी थी। वह फल-फूल रही थी। हिंदू विचाराधारा से जुड़े दूसरे प्रकाशनों में भी अमेरिकी लेखक विल डुरंट की पुस्तक ‘द केस फॉर इंडिया’ का हवाला देकर बताया है कि 17वीं सदी में दुनिया की अर्थव्यवस्था में एक तिहाई का योगदान अकेले भारत का था। यह भी कहा जा रहा है कि मुगलों के शासन में भी देश की अर्थव्यवस्था मजबूत थी। यह सही है कि अंग्रेजों की लूट के बाद भारत में धन, संपदा की कमी हुई। आठ सौ साल तक मुस्लिम शासन या आक्रांताओं की लूटपाट के बाद भी भारत की अर्थव्यवस्था अच्छी थी। मगर थी तो उसमें हिंदुओं का क्या था? यदि मुस्लिम राज में भारत फल-फूल रहा था तो उसे हिंदू विकास दर कैसे कह सकते हैं?

सो इस तरह के तमाम विरोधाभास हैं। आज अगर विकास दर गिर रही है और साढ़े तीन से साढ़े चार फीसदी के बीच है तो उसकी तुलना में 17वीं सदी की विकास दर और उसमें मुगलों की गौरव गाथा को लाने की क्या तुक है?  उसकी तुलना में आजादी के बाद के आंकड़े पेश किए जा सकते हैं। संदेह नहीं है कि आजादी के बाद आबादी तेजी से बढ़ रही थी और विकास दर स्थिर थी। आज भी उसमें ज्यादा बदलाव नहीं हु है। आबादी बढ़ रही है और इसी साल भारत दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाला देश हो जाएगा। इसके मुकाबले भारत की विकास दर स्थिर हो गई है या गिर रही है। इसी का हवाला देते हुए रघुराम राजन ने हिंदू विकास दर की बात कही है।

दरअसल हिंदुवादी संगठन और एसबीआई दोनों ने बिना किसी ठोस आधार के रघुराम की बातों का विरोध शुरू किया। एसबीआई रिसर्च ने अपनी इकोरैप रिपोर्ट में कहा है कि बचत और निवेश के आंकड़ों के आधार पर देखें तो रघुराम राजन का आकलन अपरिपक्व और पूर्वाग्रह से ग्रसित लगता है। एसबीआई ने सारी बात को सकल पूंजी निर्माण तक सीमित कर दिया है। कहना है कि वित्त वर्ष 2012 के बाद से ही सकल पूंजी निर्माण में सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों का संस्थागत हिस्सा क्रमशः 10 और 34 फीसदी पर स्थिर है। इस आधार पर उसने रघुराम राजन की रिपोर्ट को पक्षपातपूर्ण बताया है। लेकिन पिछले 10 साल से स्थिरता का एक आंकड़ा अर्थव्यवस्था की तस्वीर नहीं दिखाता है। रघुराम राजन ने निजी सेक्टर में निवेश और ब्याज दरों में बढ़ोतरी का जिक्र किया है। उसके बारे में बात नहीं हो रही है। सो, एक तरफ एसबीआई जैसे संगठन हैं, जो आधे अधूरे आंकड़ों के आधार पर रघुराम राजन की बातों का खंडन कर रहे हैं तो दूसरी ओर हिंदुवादी संगठन हैं, जो 17वीं सदी के आंकड़े दे रहे हैं। उनको देश की जर्जर हो रही अर्थव्यवस्था से मतलब नहीं है उनको इस बात पर आपत्ति है कि हिंदू विकास दर कैसे कह दिया। उसको नेहरू विकास दर कहिए तो सब ठीक है।

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Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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