nayaindia Loksabha Eelction 2024 सात राज्यों में विपक्ष में क्यों दम?

सात राज्यों में विपक्ष में क्यों दम?

गठबंधन

देश के सात राज्य ऐसे हैं, जहां भाजपा और विपक्षी गठबंधन के बीच जोरदार जोर-आजमाइश होगी। इन सात राज्यों- महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, पंजाब, बिहार, झारखंड, कर्नाटक और तेलंगाना की खास बात यह है कि वहां विपक्षी पार्टियों के पास नेता हैं, रणनीति है और एजेंडा भी है। दूसरी तरफ भाजपा के सामने नई सीट जीतने से ज्यादा चुनौती जीती हुई सीटों को बचाने की है। महाराष्ट्र में भाजपा पिछले चुनाव में 25 सीट लड़ कर 23 इसलिए जीत गई थी क्योंकि शिव सेना उसके साथ थी। बिहार में 17 सीटों पर लड़ कर वह 17 सीट जीत गई थी क्योंकि जनता दल यू का साथ था। पंजाब में दो सीटें इसलिए मिली थी क्योंकि अकाली दल साथ में था। अब इन तीनों राज्यों में उसका गठबंधन टूट गया है। तभी उसको नए समीकरण बैठाने पड़ रहे हैं, जिससे संतुलन बिगड़ा है।

बिहार में नीतीश कुमार के नहीं होने से भाजपा आशंका में है। भाजपा और दूसरे हिंदुवादी संगठन अयोध्या की हवा बिहार में फैलाने की हर संभव कोशिश में हैं लेकिन राजद, जदयू, कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई एमएल के सामाजिक समीकरण के सामने हवा यूपी की तरह नहीं फैलेगी। पिछले ढाई दशक में बिना नीतीश कुमार के भाजपा एक बार 2014 में लोकसभा का चुनाव लड़ी थी और छोटी पार्टियों के साथ उसके गठबंधन ने 40 में से 32 सीटें जीती थी। लेकिन तब नीतीश कुमार अकेले लड़े थे और उनको 16 फीसदी वोट मिला था। अगले ही  विधानसभा चुनाव में जैसे ही नीतीश और लालू साथ आए 32 लोकसभा सीट जीतने वाला भाजपा गठबंधन 59 विधानसभा सीटों पर सिमट गया। इस बार जाति गणना कराने और आरक्षण की सीमा बढ़ाने के बाद लालू प्रसाद और नीतीश कुमार साथ लड़ने की तैयारी में हैं। अगर यह गठबंधन बना रहता है तो भाजपा को अपनी जीती 17 और सहयोगी पार्टी लोजपा की छह सीटें बचाने में बहुत मुश्किल होगी। तभी कहा जा रहा है नीतीश कुमार को फिर से एनडीए में लाने की कोशिश हैं। नीतीश की पार्टी जनता दल यू के भी कई नेता ऐसा चाहते हैं। तभी बिहार की राजनीति के लिए अगले कुछ दिन बहुत अहम हैं। बिहार की राजनीति का असर झारखंड पर भी होगा। राज्य की 14 में से 12 सीटें भाजपा और उसकी सहयोगी आजसू के पास हैं। कांग्रेस और जेएमएम एक एक सीट जीत पाए थे। लेकिन विधानसभा चुनाव जीतने के बाद हेमंत सोरेन ने राज्य में स्थानीयता कानून से लेकर आरक्षण बढ़ाने जैसे कई फैसले किए हैं। ऊपर से बिहार की पार्टियों राजद, जदयू और कांग्रेस व लेफ्ट के साथ अगर उनका तालमेल बना रहता है तो भाजपा को निश्चित ही बड़ी चुनौती मिलेगी। तभी वह कांग्रेस और जेएमएम दोनों में तोड़-फोड़ की कोशिश में लगी बताई जा रही है।

पश्चिम बंगाल की 42 सीटों में से भाजपा ने पिछली बार 18 सीटें जीती थीं और उसे 40 फीसदी से कुछ ज्यादा वोट आया था। सिर्फ 70 फीसदी हिंदू आबादी वाले प्रदेश में भाजपा को 40 फीसदी से ज्यादा वोट मिलने का मतलब है कि हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण बहुत बड़ा था। हालांकि विधानसभा के चुनाव में भाजपा का यह वोट थोड़ा कम हो गया था। फिर भी अगला लोकसभा चुनाव ममता बनर्जी के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण है। पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव में भाजपा और ममता बनर्जी के बीच बराबरी की लड़ाई है लेकिन जरा सी चूक से पलड़ा किसी भी तरह झुक सकता है। पिछली बार कांग्रेस और लेफ्ट दोनों अलग अलग लड़े थे और दोनों को मिला कर 12 फीसदी वोट मिले थे। संभवतः इसी वजह से ममता बनर्जी इन दोनों को साथ लेने में हिचक रही हैं क्योंकि तब ध्रुवीकरण रास्ता पूरी तरह से खुल जाएगा। ममता विरोधी वोट का एकमात्र दावेदार भाजपा बचेगी। इसलिए वहां बहुत सोच-समझ कर रणनीति बनानी होगी।

पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच तालमेल की बात हो रही है। एक दौर की वार्ता हो चुकी है। वहां की स्थिति अनोखी है। लोकसभा में पंजाब की 13 में से सात सीटें कांग्रेस के पास और सिर्फ एक सीट आप के पास है, जबकि विधानसभा की 117 में से 92 सीटें आप की और 19 सीटें कांग्रेस की हैं। अपनी अपनी ताकत के आधार पर दोनों ज्यादा सीटों की मांग कर रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा और उसकी पुरानी सहयोगी अकाली दल के बीच फिर से बातचीत होने की खबर है। पिछले दिनों अकाली दल की कार्यकारिणी की बैठक में सुखबीर बादल को तालमेल की बातचीत के लिए अधिकृत किया गया था। पिछले दिनों हुए जालंधर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव के आंकड़ों में दिखा कि जीतने वाली आम आदमी पार्टी को 34 फीसदी वोट मिले थे और अलग अलग लड़ी अकाली और भाजपा का साझा वोट 33 फीसदी था। इसका मतलब है कि अगर आप और कांग्रेस अलग लड़े और दूसरी तरफ अकाली व भाजपा का तालमेल हुआ तो पंजाब की तस्वीर पलट सकती है। इस बात को समझते हुए कांग्रेस और आप बातचीत कर रहे हैं तो अकाली और भाजपा के बीच भी बातचीत हो रही है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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