जिस तरह से बिहार में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार इस भरोसे में हैं कि वे अपने दम पर भाजपा को हरा देंगे उसी तरह का भरोसा झारखंड में हेमंत सोरेन ने पाला है। उनको लग रहा है कि वे अकेले भी भाजपा को हरा सकते हैं। हालांकि ऐसा मानने का कोई ठोस आधार नहीं है क्योंकि झारखंड मुक्ति मोर्चा के पास लोकसभा चुनाव में लोगों को ऑफर करने के लिए अलग कुछ नहीं है। हेमंत सोरेन को पता है कि लोकसभा और विधानसभा का चुनाव बिल्कुल अलग होता है। 2019 के मई में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा 14 में से 12 सीटों पर जीती थी लेकिन छह महीने बाद ही दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा 25 सीटों पर सिमट गई, जबकि लोकसभा की सिर्फ एक सीट जीतने वाली जेएमएम 30 विधानसभा सीट जीत गई।
लोकसभा चुनाव के समय लोगों के मन में भाजपा और नरेंद्र मोदी को लेकर गुस्सा नहीं था तो उन्होंने जम कर भाजपा को वोट किया। यहां तक कि दुमका लोकसभा सीट पर जेएमएम के संस्थापक और झारखंड के सबसे बड़े नेता शिबू सोरेन चुनाव हार गए। लेकिन विधानसभा चुनाव के समय लोगों का गुस्सा राज्य की भाजपा सरकार के प्रति था तो उन्होंने उसको हरवा दिया। कुछ भाजपा की अपनी गलतियां भी थीं, जो उसने तालमेल ठीक से नहीं किया था। लगातार दो लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 14 में से 12 सीटें जीतीं। 2014 में जेएमएम को संथालपरगना में दो सीटें मिल गई थीं। लेकिन 2019 में उसे संथालपरगना में एक सीट मिली और दूसरी सीट कोल्हान में कांग्रेस को मिली। पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा कांग्रेस की टिकट पर सिंहभूम सीट से जीतीं। पिछले दो विधानसभा और लोकसभा चुनाव का संदेश यह है कि झारखंड के आदिवासी हों, पिछड़े या दलित हों, सवर्ण हों या बाहरी हों वे प्रादेशिक पार्टियों के मुकाबले राष्ट्रीय पार्टियों को तरजीह देते हैं।
इस बार भी स्थिति अलग नहीं है। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में 30 सीट जीतने के उत्साह में हेमंत सोरेन कांग्रेस को किनारे कर रहे हैं। वे पहले से ज्यादा लोकसभा सीटों की मांग कर रहे हैं। वे अपने को सबसे बड़ी पार्टी बता कर ज्यादा सीटों पर लड़ना चाहते हैं, जिससे कांग्रेस और दूसरी सहयोगी पार्टियों से तालमेल गड़बड़ा रहा है। जेएमएम का दावा बराबर सीटों पर है, जबकि लोकसभा चुनाव में हमेशा कांग्रेस ज्यादा सीट पर लड़ती रही है। ऊपर से राजद, जदयू और लेफ्ट पार्टियों को भी सीट देने का दबाव है। ज्यादा सीट लड़ने की जेएमएम की जिद से जमीनी समीकरण बिगड़ सकता है।
अभी तक जेएमएम को आदिवासी राजनीति पर एकछत्र अधिकार का भरोसा था। लेकिन भाजपा ने बहुत सावधानी से आदिवासी कार्ड की काट खोजी है। पार्टी छोड़ कर गए राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी में वापसी करा कर उनको अघोषित रूप से मुख्यमंत्री का दावेदार बनाया गया है। वे भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं। उसके बाद संथाल आदिवासी समाज से आने वाले द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाया गया है। ध्यान रहे जेएमएम का आधार मुख्य रूप से संथाल आदिवासियों में है। इसके बाद छत्तीसगढ़ में पहला आदिवासी मुख्यमंत्री बनाया गया है। झारखंड के आदिवासी नेता अर्जुन मुंडा को कृषि जैसा भारी भरकम मंत्रालय देकर उनका भी कद बढ़ाया गया है। सो, आदिवासी कार्ड की काट भाजपा ने खोज ली है। इसके बाद दलित समाज से आने वाले अमर बाउरी को विधायक दल का नेता बनाया है और पिछड़ी जाति के जेपी पटेल को सचेतक बनाया है। जाति गणना और आरक्षण बढ़ाने की राजनीति करके विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ ने अगड़ी जातियों को नाराज किया है, जिनका स्वाभाविक रुझान भाजपा की ओर है।
सो, ध्यान से देखें तो हेमंत सोरेन के पास भी अलग कुछ नहीं है। लेकिन चूंकि पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा को हरा दिया था इसलिए सोच रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में भी हरा देंगे। उन्होंने भी आदिवासी, पिछड़ा, दलित का आरक्षण बढ़ाने का दांव चला है और साथ ही 1932 के खतियान से स्थानीयता तय करने का विधेयक भी पास कराया है। लेकिन इन मुद्दों का लोकसभा चुनाव में ज्यादा लाभ मिलने की संभावना नहीं है। लोकसभा चुनाव में भाजपा को बराबरी टक्कर देने का एक ही तरीका है कि जेएमएम, कांग्रेस, राजद, जदयू और लेफ्ट के बीच सद्भाव रहे, सीटों का बंटवारा सही तरीके से हो और सब मिल कर चुनाव लड़ें। अपने राज्य को बाकी देश से अलग मानने की सोच समूचे गठबंधन को नुकसान पहुंचा सकती है।