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राम के साथ काम का भी नैरेटिव

राम के साथ काम का भी नैरेटिव

भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा नहीं है कि सिर्फ राम नाम का नैरेटिव बना रहे हैं। अयोध्या में पूजा पाठ और अनुष्ठान के साथ साथ मोदी सरकार के 10 साल के कामकाज का भी बड़ा नैरेटिव बनाया जा रहा है। प्रधानमंत्री जहां जहां पूजा करने गए वहां उन्होंने हजारों करोड़ रुपए की परियोजनाओं का शिलान्यास और उद्घाटन भी किया। इसके अलावा हर जगह उन्होंने यह जरूर कहा कि उनके तीसरे कार्यकाल में भारत दुनिया की तीसरा सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बनेगा। उन्होंने इसी दौरान देश के सबसे बड़ी समुद्री पुल का उद्घाटन भी किया। इसी बीच देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर दिखाने वाली कई खबरें आईं। बताया गया है कि चालू वित्त वर्ष में भारत की अर्थव्यवस्था 7.3 फीसदी की दर से बढ़ेगी। उसके बाद नीति आयोग के हवाले से खबर आई कि पिछले नौ साल में 25 करोड़ लोगों को गरीबी से निकाला गया है।

सोचें, यह कितना पावरफुल नैरेटिव है! हालांकि नीति आयोग के इस दावे में कई गड़बड़ियां और  विरोधाभास हैं। लेकिन लोगों को इससे ज्यादा मतलब नहीं होता है। वे आंकड़ों की सचाई में नहीं जाते हैं। उन्हें इस बात से मतलब है कि सरकार मंदिर बनवा रही है और साथ ही विकास का काम भी हो रहा है। इन दोनों बातों का ढोल इतनी जोर से पीटा जाता है कि लोग बाकी बातें भूल जाते हैं। यह ध्यान रखने की जरुरत है कि नरेंद्र मोदी को चुनाव जीतने के लिए देश के एक सौ करोड़ लोगों के वोट नहीं लेने हैं। उनको 35 से 40 फीसदी वोट की जरुरत है। जैसे पिछली बार भाजपा को 37 फीसदी वोट मिला था। उसे कुल 22 करोड़ वोट मिले थे, जो 2014 में मिले 17 करोड़ वोट से पांच करोड़ ज्यादा थे। इस बार भी इस वोट में तीन-चार करोड़ की बढ़ोतरी से उनकी जीत सुनिश्चित हो जाएगी।

ध्यान रहे भारत में इस बार एक सौ करोड़ के करीब मतदाता होंगे, जिनमें से 70 फीसदी मतदान करेंगे। पिछली बार 67 फीसदी मतदान हुआ था। अगर 70 फीसदी मतदान होता है तो इसका मतलब है कि 70 करोड़ लोग वोट डालेंगे। उनमें से अगर 40 फीसदी यानी 28 करोड़ केकरीब वोट भाजपा को जाते हैं तो उसकी जीत की गारंटी हो जाएगी। सो, भाजपा का असली खेल अपने कोर वोट को बचाए रखने का है। उसे नया वोट नहीं जोड़ना है। अगर उसका कोर वोट उसके साथ जुड़ा रहा तो उसे ज्यादा दिक्कत नहीं आएगी। उसका कोर वोट उसको मंहगाई, बेरोजगारी, गरीबी या कूटनीति के आधार पर नहीं छोड़ने वाला है। उसके कोर वोट में हर साल युवा मतदाता जुड़ रहे हैं। जिन घरों में राममय माहौल है या मोदी को अवतार मानने की धारणा है वहां अगर कोई नया मतदाता इस बार वोट करेगा तो उसका वोट दूसरे को जाने की कोई संभावना नहीं है।

तभी यह जो तर्क दिया जा रहा है कि जहां भाजपा का मजबूत असर है वहां वह पहले ही सारी सीटें जीती हुई है तो अयोध्या में राममंदिर के निर्माण से वह ज्यादा सीटें कहां से जीत जाएगी, उचित नहीं है। अगर भाजपा अपनी सीटें बचा लेती है तब भी उसका काम हो जाएगा। उसको अतिरिक्त सीटों की जरुरत नहीं पड़ेगी। साथ ही यह ध्यान रखने की जरुरत है कि राममंदिर में प्राण प्रतिष्ठा से उत्तर प्रदेश में उसकी सीटें बढ़ भी सकती हैं और दक्षिण भारत में इसकी लहर पहुंची तो चौंकाने वाले नतीजे आ सकते हैं। हैरानी नहीं होगी अगर दक्षिण के उन राज्यों में भाजपा कुछ सीटें जीत जाए, जहां वह जीरो पर है। इसलिए राम मंदिर के नैरेटिव को हलके में लेने की जरुरत नहीं है। विपक्षी पार्टियों के सामने एक ही रास्ता यह है कि वे भाजपा के संभावित 40 फीसदी वोट के बाद बचे हुए 60 फीसदी यानी करीब 42 करोड़ वोट को एकजुट करने का प्रयास करें। यह तभी होगा तब भाजपा के हर उम्मीदवार के सामने विपक्ष का एक उम्मीदवार हो। ध्यान रहे यह औसत आंकड़ा है। हिंदी पट्टी के कई राज्यों में भाजपा को 50 फीसदी तक वोट मिलते हैं। वहां विपक्ष क्या करेगा यह भी सोचना चाहिए।

Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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