nayaindia Rojgar Mela PM Modi रोजगार मेले का झुनझुना

रोजगार मेले का झुनझुना

अगर युवाओं की बात करें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल की शुरुआत कौशल विकास के साथ हुई थी। इसके लिए अलग मंत्रालय बनाया गया था। इसके अलावा हर साल दो करोड़ नौकरी देने का वादा भी था। लेकिन 10 साल के कार्यकाल के आखिरी वर्षों में जाकर रोजगार मेले की शुरुआत हुई। वर्ष 2022 के आखिर में सरकार ने ऐलान किया कि अगले एक साल में 10 लाख नौकरियां दी जाएंगी। सोचें, जब कोई सरकार चुनावी साल में रोजगार मेला लगा कर प्रधानमंत्री के हाथों नियुक्ति पत्र बांटने का ऐलान करे और पूरे साल में 10 लाख लोगों को नियुक्ति पत्र दे तो अंदाजा लगाए कि बाकी समय क्या स्थिति रही होगी? लोक लुभावन कामों में सरकारें अपने बेस्ट प्रदर्शन चुनावी साल में करती है। सो, लोकसभा चुनाव से पहले 16 महीनों में अगर सरकार ने 10 लाख युवाओं को नौकरी दी है तो उससे पहले के 44 महीनों में कितनों को नौकरी मिली होगी?

नरेंद्र मोदी बतौर प्रधानमंत्री जब दूसरी बार सत्ता में लौटे थे और शपथ ली थी तो उसके अगले ही दिन यानी 31 मई 2019 को उनके श्रम मंत्रालय की ओर से राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय यानी एनएसएसओ का बेरोजगारी का आंकड़ा जारी हुआ था। उसमें बताया गया था कि वित्त वर्ष 2017-18 में बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी रही थी, जो 45 साल में सबसे ज्यादा थी। 1971 के बाद पहली बार बेरोजगारी दर इतनी ज्यादा हुई थी। वित्त वर्ष 2011-12 में भारत में बेरोजगारी दर 2.2 फीसदी थी। यह सर्वेक्षण नोटबंदी के फैसले के तुरंत बाद कराया गया था। जाहिर है कि नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था को जैसे प्रभावित किया और जितना नुकसान हुआ उसका असर रोजगार की स्थिति पर भी पड़ा था। लेकिन यह पहली और आखिरी बार था जब बेरोजगारी की दर को लेकर इतना हल्ला मचा था। उसके बाद चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। जबकि अभी कुछ दिन पहले बेरोजगारी दर आठ फीसदी से ऊपर थी और अब भी 6.8 फीसदी है।

देखने में लगेगा कि यह बड़ा आंकड़ा नहीं है लेकिन इसमें 16 साल से ऊपर से हर उम्र के व्यक्ति के हर किस्म के काम को शामिल किया गया है। इसमें ज्यादातर लोग असंगठित क्षेत्र में बहुत मामूली वेतन की नौकरी कर रहे हैं या छोटे छोटे स्वरोजगार कर रहे हैं। ब्लूमबर्ग के आंकड़े के मुताबिक करीब 58 फीसदी आबादी ऐसी है, जो अवैतनिक घरेलू काम या छोटा व्यवसाय चलाने सहित स्व रोजगार से जुड़ी हैं। सोचें, एक तरफ युवा शक्ति का डंका है, युवाओं के आत्मनिर्भर होने की बातें हैं, दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाले देश में सबसे बड़ी कामकाजी आबादी होने का दावा है और दूसरी ओर रोजगार के ऐसे आंकड़े हैं! भारत पहले भी अपनी जनसांख्यिकी का बेहतर इस्तेमाल नहीं कर पा रही था लेकिन अब तो युवाओं के सामने संगठित क्षेत्र की नौकरी या अच्छे कारोबार की स्थिति सपने जैसी हो रही है।

सरकार ने 2016 के अंत में नोटबंदी का फैसलाकिया था और उसके अगले ही साल यानी 2017 की जुलाई में वस्तु व सेवा कर यानी जीएसटी को लागू किया गया। इन दोनों वित्तीय फैसलों की वजह से देश में कारोबारी स्थिति बहुत खराब हुई। पूरी अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई। खुद सरकार ने माना कि लाखों की संख्या में छोटे उद्यमियों के कारोबार बंद हो गए। एमएसएमई यानी लघु, सूक्ष्म व मझोले उद्योगों पर ताला लग गया। सरकार ने यह भी बताया कि लाखों की संख्या में फर्जी कंपनियों को बंद कराया गया है। हालांकि बाद में जब पूछा गया कि फर्जी कंपनी की क्या परिभाषा है तो सरकार ने कहा कि ऐसी कोई परिभाषा नहीं है। यानी फर्जी कंपनी नाम से कोई श्रेणी ही नहीं है। इसका मतलब है कि अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता लाने और उसे काले से सफेद करने की कथित योजना के तहत सरकार ने लाखों लोगों के कामकाज बंद करा दिए। इसका बड़ा असर रोजगार की संभावना पर पड़ा।

जब सरकार को लगा कि वह साल में दो करोड़ क्या उसके 10 फीसदी के बराबर भी नौकरी नहीं दे सकती है तो उसने कहना शुरू किया कि युवाओं को नौकरी देने वाला बनना चाहिए। फिर यह जुमला चल पड़ा कि भारत में युवा नौकरी देने वाले बन रहे हैं। सोचें, करोड़ों लोग नौकरी की तलाश में इधर उधर भटक रहे हैं और सम्मानजनक जीवन जीने के लिए जरूरी साधन नहीं जुटा पा रहे हैं और सरकार व सत्तारूढ़ दल ने प्रचार कर दिया कि भारत में युवा नौकरी देने वाले बन रहे हैं। स्थिति यह है कि युवा नौकरी की तलाश में भटक रहा है। सातवीं पास और साइकिल चलाने की योग्यता वाली नौकरी में इंजीनियरिंग की डिग्री वाले युवा फॉर्म भर रहे हैं। दिल्ली में चिड़ियाघर में सहायक यानी जू-कीपर की नौकरी निकली तो बड़ी संख्या बीए, एमएम, बीटेक और एमबीए कर चुके युवाओं मे आवेदन किया और ज्यादातर नौकरी उनको मिली। सोचें, न्यूनतम वेतन वाली नौकरी के लिए उच्चतम डिग्री वाले युवा आवेदन कर रहे हैं और सरकार कह रही है कि वह युवाओं को नौकरी देने वाला बना रही है? एक पद के लिए एक-एक हजार आवेदन हो रहे हैं और संस्थाएं फॉर्म बेच कर पैसे कमा रही हैं।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें