यह अब सामान्य है, ढर्रा है!
साफ दिख रहा था, और वह असहज था तो चेताने वाला भी। उमस से भरी झुलसाती दोपहर में कुछ नौजवान लड़के और महिलाएं फुटपाथ पर चुपचाप खड़े थे, उनके पैरों के पास खाली डिब्बे, टेढ़ी-मेढ़ी बाल्टियाँ, प्लास्टिक की बोतलें थी। वे पानी के टैंकर का इंतज़ार कर रहे थे। न हड़बड़ी में थे, न बातचीत करते हुए- बस एक अजीब-सी ख़ामोशी, जो व्यवस्था, हालतों के आगे लाचारी से उपजी थी। हर कोई गर्दन झुकाए अपने मोबाइल की स्क्रीन में डूबा हुआ था। बड़े, चटक रंगों वाले फोन पर उनके पतले हाथों, और भी पतली ज़िंदगियों की उंगलियाँ स्वाभाविक गति से...