यह साफ है कि कुछ राजनीतिक पार्टियों और सिविल सोसायटी के भी बहुत बड़े हिस्से में अडानी- हिंडनबर्ग मामले में सुप्रीम कोर्ट फैसले को सिर-आंखों पर लेने का भाव नहीं दिखा है। विचारणीय है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है और इसका क्या समाधान है?
अडानी- हिंडनबर्ग मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर दो विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया गौरतलब रही। कांग्रेस ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय देते हुए ‘असाधारण उदारता’ दिखाई है। उधर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने कहा कि यह फैसला देकर न्यायपालिका ने अपनी प्रतिष्ठा में बढ़ोतरी नहीं की है। लोग इन दोनों प्रतिक्रियाओं के अर्थ अपने ढंग से निकालेंगे, लेकिन यह तो साफ है कि ये दोनों पार्टियों, दरअसल विपक्ष का एक बड़ा हिस्सा और सिविल सोसायटी के भी बहुत बड़े भाग में इस फैसले को सिर-आंखों पर लेने का भाव नहीं दिखा है। क्या इसे देश की न्यायपालिका की घटती साख का संकेत माना जाएगा? अगर ऐसा है, तो यह बहुत बड़ी चिंता की बात है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में आम धारणा यह होती है कि सरकार विभिन्न हितों के बीच समन्वय बनाने वाली इकाई है। वह या उसकी संस्थाएं ऐसा करती नहीं दिखतीं, तो शिकायत न्यायपालिका के पास जाती है। न्यायपालिका का निर्णय सर्वोच्च होता है, जिसे सभी संबंधित पक्ष पूर्ण विश्वास के साथ स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन भारत में इस परंपरा का ह्रास होता दिख रहा है।
यह विचारणीय है कि ऐसा क्यों हो रहा है और इसका क्या समाधान है? गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने अडानी समूह के खिलाफ जांच करने के लिए विशेष जांच दल (एसआईटी) के गठन की मांग को ठुकरा दिया है। अदालत ने हिंडनबर्ग मामले में अडानी समूह के खिलाफ सेबी की जांच पर भरोसा जताया है और कहा है कि सेबी ही जांच को आगे ले जाएगी। एक और खास बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में हिंडनबर्ग और संबंधित मीडिया रिपोर्टों की साख पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। कोर्ट ने कहा कि प्रेस की रिपोर्टें सेबी के लिए इनपुट जरूर हो सकती हैं, लेकिन उनके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि बतौर नियामक सेबी अपना काम करने में नाकाम रही। कोर्ट ने यह भी कहा है कि सेबी और सरकार को देखना चाहिए कि क्या हिंडनबर्ग रिपोर्ट से किसी भारतीय कानून का उल्लंघन हुआ और क्या इस मामले में कोई कार्रवाई की जा सकती है।