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भ्रष्टाचार एजेंडे पर नहीं

भ्रष्टाचार एजेंडे पर नहीं

ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल की जो कसौटियां आज हैं, वही दस साल पहले भी थीं। प्रश्न है कि अगर इन कसौटियों पर तैयार भ्रष्टाचार सूचकांक से उभरी सूरत को लेकर तत्कालीन सरकार की जैसी भ्रष्ट छवि बनी थी, तो आज वैसा ही क्यों नहीं हो रहा है?

भारत भ्रष्टाचार अवधारणा के सूचकांक पर भारत एक साल में आठ अंक गिर गया। लेकिन यह खबर मीडिया की सुर्खियों में उस तरह से नहीं आई है, जैसा दस साल पहले होता था। तत्कालीन यूपीए सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का नैरेटिव बनाने में अंतरराष्ट्रीय संस्था ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल (टीआई) की रिपोर्टों ने बड़ी भूमिका निभाई थी। लेकिन अब जबकि अंतरराष्ट्रीय सूचकांक में गिर कर भारत फिर लगभग दस साल पहले जितने ही स्थान पर पहुंच गया है, तब इसको लेकर शायद ही कोई शोरगुल है। गौरतलब है कि 2012 में भारत टीआई सूचकांक में 94वें नंबर पर था। ताजा जारी 2023 के सूचकांक में वह 93वें स्थान पर है। यानी भारत को आज लगभग उतना ही भ्रष्ट देश समझा जा रहा है, जितना 12 साल पहले समझा गया था। टीआई के सूचकांक में कई खामियां हैं। इनमें सबसे बड़ी खामी यह है कि इसे सिर्फ पब्लिक सेक्टर में मौजूद भ्रष्टाचार से बनी अवधारणा के आधार पर तैयार किया जाता है। जबकि अर्थव्यवस्था के अधिक से अधिक निजीकरण होने के साथ निजी क्षेत्र में होने वाला भ्रष्टाचार सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित करने वाला बड़ा पहलू बनता चला गया है।

फिर नीतिगत मामलों में चुनावी चंदे और मोनोपॉली घरानों के सरकारों पर बढ़ते नियंत्रण का पहलू भी अहम हो गया है। इन व्यवस्थागत पहलुओं का आकलन टीआई की रिपोर्टों में प्रतिबिंबित नहीं होता है। बहरहाल, टीआई की जो कसौटियां आज हैं, वही दस साल पहले भी थीं। प्रश्न है कि अगर इन कसौटियों पर तत्कालीन सरकार की भ्रष्ट छवि बनी थी, तो आज वैसा ही क्यों नहीं हो रहा है? संभवतः इसका एक कारण राजनीतिक कथानक तैयार करने के माध्यमों पर सत्ता पक्ष का कसता गया शिकंजा है। साथ ही सिविल सोसायटी के संगठन या तो अपने राजनीतिक रुझानों की वजह से चुप हो गए हैं, या फिर वे इतने भयभीत हैं कि वे उन्हीं मुद्दों पर अब नहीं बोलते, जिनको लेकर एक समय वे अतिशय वाचाल होते थे। जबकि इस दौरान देश में पारदर्शिता और धुंधली हुई है। इसके बावजूद इस पर समाज आंदोलित नहीं है, तो यह भारतीय समाज पर एक प्रतिकूल टिप्पणी है।

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