nayaindia ULFA Peace Pact स्थानीयकरण की हद!

स्थानीयकरण की हद!

ऐसे निर्णय लेते समय इस संवैधानिक प्रावधान का तनिक भी ख्याल नहीं किया जाता कि भारत के हर नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में जाकर रहने, कारोबार करने या रोजगार हासिल करने का मौलिक अधिकार है। लेकिन ऐसा लगता है कि इस भावना के विपरीत देश में स्थानीयकरण की हद तक जाने की होड़ लगी हुई है।

केंद्र और असम सरकारों ने यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) के अरविंद राजखोवा गुट के साथ जो करार किया है, उसमें शामिल कुछ शर्तें विवादास्पद हैं। मसलन, यह कि अगले परिसीमन के समय असम विधानसभा की 126 में से 97 सीटें मूलवासी लोगों के लिए आरक्षित कर दी जाएंगी। दूसरी शर्त ऐसी संवैधानिक व्यवस्था की है, जिसके तहत किसी चुनाव क्षेत्र में दूसरे चुनाव क्षेत्र के बाशिंदे जमीन नहीं खरीद सकेंगे। हैरतअंगेज है कि जम्मू-कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 के तहत मिले ऐसे ही संरक्षणों के खिलाफ दशकों तक अभियान चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी किसी अन्य राज्य में इस तरह की शर्तों के लिए एक समय खूंखार आतंकवादी रहे संगठन के सामने राजी हो रही है। देश की एकता के लिए आवश्यक है कि स्थानीय जरूरतों और राष्ट्रीय तकाजों में तालमेल बैठाया जाए। इनमें से किसी एक तरफ पलड़े का ज्यादा झुकना अवांछित समझा जाएगा। असम के मामले में तो बात किसी दूसरे प्रदेश के बाशिंदों से भेदभाव तक ही सीमित नहीं है। बल्कि पास-पड़ोस के निवासियों के लिए दरवाजे बंद किए जा रहे हैं।

ऐसे निर्णय लेते समय इस संवैधानिक प्रावधान का तनिक भी ख्याल नहीं किया जाता कि भारत के हर नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में जाकर रहने, कारोबार करने या रोजगार हासिल करने का मौलिक अधिकार है। लेकिन ऐसा लगता है कि इस भावना के विपरीत देश में स्थानीयकरण की हद तक जाने की होड़ लगी हुई है। कुछ समय पहले हरियाणा में तीन चौथाई नौकरियां प्रदेश-वासियों के लिए आरक्षित की गई थीं, जिसे न्यायपालिका ने असंवैधानिक ठहराया। लेकिन अब वैसा ही कदम झारखंड सरकार ने उठाया है। स्पष्टतः राजनीतिक पार्टियों के पास चुनावी गणित बैठाने के अलावा देश निर्माण या जन-कल्याण का कोई सपना नहीं बचा है। वरना, उनकी निगाह मूलभूत समस्याओं तक जा पाती। समस्या ऐसी आर्थिक नीतियों का अभाव है, जिससे अधिक-से-अधिक रोजगार निर्मित हो और सबको संतुष्ट करने लायक विकास की तरफ समाज बढ़े। चूंकि इसके लिए उपयुक्त दृष्टि और साहस का राजनीतिक नेतृत्व में अभाव हो गया है, इसलिए बांटने और दूरी बढ़ाने वाली नीतियों का सहारा ही उनके पास बचा नजर आता है।

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