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हर सुबह मौसम की मार!

मैं जलवायु परिवर्तन का मारा हूं। आप नहीं मानते? चलिए, मत मानिए। पर हर सुबह बीबीसी, सीएनएन, फ्रांस 24, एबीसी जैसी वैश्विक टीवी चैनलों पर दुनिया के (ताजा टेक्सास में बाढ़) जो फुटेज दिखते हैं, वे सभी के दिलो-दिमाग में सवाल पैदा करते होंगे कि यह हो क्या रहा है?

न्यू मेक्सिको में बाढ़, स्विट्ज़रलैंड की पहाड़ियों में भूस्खलन, यूरोप में 44 डिग्री की दोपहर, ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में आग, चीन में डूबती सड़कें… हर फुटेज एक ही सवाल पैदा करता है, यह हो क्या रहा है?

और जवाब?

प्रकृति अब ग़ुस्से में है। और हम?

मेरा मानना है कि दुनिया के बाकी इलाकों की तुलना में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश में मानसून का उत्पात खबरों में भले दबा हो, लेकिन मार बहुत गहरी है। राजधानी दिल्ली की सड़कों के गड्ढों से लेकर गुजरात, हिमाचल में पुल टूटने, सड़कें बंद होने जैसी छोटी-छोटी खबरें भी यह आवश्यकता बतलाती हुई हैं कि भारत में आपदा प्रबंधन–जलवायु परिवर्तन के लिए अब रक्षा मंत्रालय जैसी अहमियत वाला एक अलग मंत्रालय बनना चाहिए। पर आपदा को हम लोग क्योंकि नियति मानते हैं, तो सोचना कैसे संभव? ठूठ तंत्र में कोई संवेदना ही नहीं है।  अमेरिका में जहां तहसीलनुमा काउंटी का मेयर भी आपदा पर सिसकता है, ज़िम्मेदारी लेता हुआ दिखता है; वहीं भारत में आपदा एक अवसर है, हर तरह का अवसर। दौरे, दिखावे और प्रेस रिलीज़, फोटोशूट का अवसर, न कि ज़िम्मेदारी स्वीकारनेस सबक सीखने या चेतावनी देने का।

इसी सप्ताह यूरोप, खासकर स्पेन की सड़कों के ऐसे चित्र दिखे, जिनमें 40 डिग्री की गर्मी से लोगों को राहत दिलाने के लिए सरकार ने हवा को ठंडा करने वाली मशीनें सड़कों के किनारे लगा रखी थीं। वही दोपहर में काम की छुट्टी भी घोषित ग थी। स्विट्ज़रलैंड में पहाड़ ढहने और घाटी के नीचे की बस्ती के बचाव के लिए अग्रिम चेतावनी प्रणाली और वैज्ञानिक प्रबंधन विकसित हुआ हैं जिसके ग्लेशियर, पहाड टूटने से घाटी पूरी तरह मिट्टी से पट गई मगर एक आदमी नहीं मरा। जबकि भारत में? जर्जर पुल की रिपोर्ट भी फाइल में दबी रहती है और तब तक ट्रैफिक चलता रहता है, जब तक पुल बह न जाए।

हालांकि टेक्सास की तबाही ने दिखा दिया है कि विज्ञान और मशीनरी की चुस्ती भी प्रकृति की प्रलय के आगे बेबस है। अमेरिका भी वैसा ही नुकसान झेलता दिख रहा है जैसा दुनिया के बाकी देश। मगर चूंकि अमेरिका वैश्विक मीडिया के फोकस में होता है, वहां की आपदा नजर आती है। जबकि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे दक्षिण एशियाई देशों में आपदाएं गुमनाम बनी रहती हैं।

असल सच्चाई है कि प्रकृति की विनाशलीला का सबसे बड़ा केंद्रीय बिंदु दक्षिण एशिया है। वैज्ञानिकों के अनुसार उपमहाद्वीप में ही प्रकृति का सर्वाधिक कहर बरपना है। पर क्षेत्र के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों, पाकिस्तान के फील्ड मार्शल मुनीर या बांग्लादेश के स्वयंसेवी राष्ट्र प्रमुख मोहम्मद यूनुस सभी की प्राथमिकताएं क्या हैं? तमगे लेना, तमगे दिखाना! क्यों? इसलिए कि लोगों की भीड़ न सिर्फ भाग्यवादी हैं, बल्कि तमगों को ही भाग्य मानते हैं। और इंसानों की जान, गरिमा और पीड़ा का मोल उतना है, जितना कोई तमगा तौल सके।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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