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दलित और आदिवासी बनने की होड़

कास्ट मोबिलिटी यानी जाति गतिशीलता को लेकर भारत में बहुत कुछ लिखा गया है। महान समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास से लेकर समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा तक ने इस पर बहुत विस्तार से लिखा है। दोनों मानते रहे हैं कि प्राचीन भारत से लेकर अभी तक जातियों में बड़ी गतिशीलता रही है और आज कोई व्यक्ति जिस जाति में है, जरूरी नहीं है कि बरसों पहले उसके पूर्वज उसी जाति में रहे हों। दुनिया के किसी भी दूसरे देश के मुकाबले भारत में जाति गतिशीलता ज्यादा रही है। जाति की रूढ़ और बंद प्रकृति के बावजूद भारत में परिवर्तन होता रहा है। एमएन श्रीनिवास ने इसे सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया के तौर पर रेखांकित किया। उन्होंने तो आजादी के पांच साल बाद ही यह सिद्धांत दिया था कि संस्कृतिकरण और पश्चिमीकरण की वजह से नीची जाति का कोई व्यक्ति सिर्फ दो या तीन पीढ़ी में सामाजिक पदनुक्रम में ऊपर की पोजिशन में पहुंच सकता है।

ऐसा नहीं है कि जाति की गतिशीलता सिर्फ सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया की नतीजा था। प्राचीन और मध्यकाल में हुए अनगिनत युद्धों में जय और पराजय ने भी इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। युद्ध जीतने वाले विजेता सामाजिक पदनुक्रम में ऊपर बढ़ते गए। एक समय ऐसा भी था कि जब सामाजिक पदनुक्रम यानी सोशल हायरार्की में ऊपर जाने की होड़ थी। लेकिन अब सामाजिक व्यवस्था में नीचे का पदनुक्रम हासिल करने की होड़ लगी है। जातियां इस बात के लिए लड़ रही हैं कि उनको दलित या आदिवासी बनाया जाए। ऐसा लग रहा है कि सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया का चक्र उलटा घूमने लगा है। जिस व्यवस्था में सबको ऊपर की और बढ़ना था वहां सब सामूहिक रूप से नीचे की ओर जाने की होड़ में हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि सामाजिक व्यवस्था में नीचे के पायदान पर पहुंच कर ऊंचा हो जाया जाए? यह सोच सामाजिक व्यवस्था में बदलाव का प्रतीक है या राजनीतिक बदलाव का? पिछले कुछ समय से देश में जाति आधारित राजनीति बढ़ी है। आबादी के अनुपात में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व भी धीरे धीरे बढ़ा है। एक तरफ राजनीति में पिछड़ी जातियों का वर्चस्व बना है तो दूसरी ओर देश की बड़ी आबादी सामाजिक व आर्थिक स्तर पर एक बराबर पहुंच गई हैं। जैसे जैसे देश में आर्थिक असमानता बढी है वैसे वैसे सामाजिक समानता बढ़ती गई है। सामाजिक स्वीकार्यता का एकमात्र पैमाना पैसा बन गया है। पुरानी धार्मिक व सांस्कृतिक परंपराएं कमजोर पड़ गई हैं। सो, खुल कर लोग अपनी पिछड़ी जाति की पहचान बताने लगे हैं और इस वजह से पिछड़ा, अतिपिछड़ा, दलित या आदिवासी बनने की होड़ मची है।

ध्यान रहे भारत में आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर की गई है और इसलिए जब गरीब सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया गया तो एक बड़े तबके ने इसे संविधान विरूद्ध बताते हुए इस पर सवाल उठाया। पिछले दिनों सामाजिक न्याय पर एक दिन के सेमिनार में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने इसका विरोध करते हुए कहा कि कोई गरीब आदमी अमीर बन सकता है या अमीर आदमी गरीब हो सकता है या अमीर आदमी अपनी अमीरी छिपा कर गरीब बना रह सकता है लेकिन पिछड़ी व दलित जातियों की पहचान हमेशा उनके साथ रहती है। इस आधार पर वे यह साबित करना चाहते थे कि आरक्षण का आधार सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन ही होना चाहिए। संविधान ने सामाजिक पिछड़ेपन को ही दूर करने के लिए आरक्षण का प्रावधान किया था।

अब जातियों में सामाजिक पदनुक्रम में ऊपर उठने की बजाय नीचे जाने की होड़ है। जो अगड़ी जाति में है उसे पिछड़ी जाति में जाना है, जो पिछड़ी जाति में है उसे दलित या आदिवासी समूह में शामिल होना है। अंग्रेजों के जमाने में जो जातियां दलित या आदिवासी समूह में से निकाल कर ओबीसी श्रेणी में डाली गई थीं उनको वापस उसी समूह में जाना है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनको लग रहा है कि दलित या आदिवासी समूह में अब भी सामाजिक और शैक्षणिक चेतना का प्रसार बहुत ज्यादा नहीं हुआ है इसलिए उनको जो आरक्षण मिल रहा है उसका लाभ लेने वालों की संख्या कम है। उस समूह में शामिल हो जाने पर आरक्षण की सुविधा मिलने की संभावना ज्यादा है। इसी सोच में जाट और मराठा जैसे ताकतवर सामाजिक समूह आरक्षण के लिए आंदोलन करते रहे तो राजस्थान के गूजर अनुसूचित जाति में शामिल होने और झारखंड व बंगाल के कुर्मी अनुसूचित जनजाति में शामिल होने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। मणिपुर में बहुसंख्यक मैती आदिवासी बनने के लिए आंदोलन कर रहे हैं।

बिहार और उत्तर प्रदेश के कुर्मी से मिलते जुलते झारखंड और पश्चिम बंगाल के कुड़मी हैं वे अनुसूचित जनजाति में शामिल होने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। अप्रैल में कोई चार दिन तक उनके आंदोलन की वजह से बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के कई इलाकों में सड़क और ट्रेन का परिचालन प्रभावित हुआ। करीब एक सौ ट्रेनें रद्द हुईं। कुड़मी समुदाय के लोग ट्रेन की पटरियों पर बैठे थे। इस समुदाय के ज्यादातर लोग झारखंड के छोटानागपुर पठार के रहने वाले हैं। यह इलाका आदिवासियों की बहुसंख्या वाला है। इन आदिवासियों को आरक्षण का लाभ मिल रहा है। कुड़मी समाज के लोग ओबीसी में आते हैं, जिसमें पहले से अनेक जातियां हैं, जो आर्थिक और सामाजिक रूप से बहुत शक्तिशाली हैं। इससे कुड़मी समुदाय को ओबीसी आरक्षण का ज्यादा लाभ नहीं मिल पाता है। इसलिए वे बार बार आंदोलन कर रहे हैं। उनकी मांग है कि उन्हें अनुसूचित जनजाति यानी एसटी की लिस्ट में शामिल किया जाए। इसके साथ ही आंदोलनकारी कुरमाली भाषा को संविधान के आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की भी मांग कर रहे हैं। इन प्रदर्शनकारियों का कहना है कि ब्रिटिश काल में 1931 की एसटी की लिस्ट में वे शामिल थे। आजादी के तीन साल बाद 1950 तक कुड़मी एसटी के तौर पर ही जाने जाते थे। इनका आरोप है कि 1950 में आई इनकी जाति को एसटी से निकालकर ओबीसी में शामिल कर दिया गया। अब ये दोबारा एसटी सूची में शामिल होने का आंदोलन कर रहे हैं।

इसी तरह राजस्थान में गुर्जर समुदाय ने कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के नेतृत्व में आंदोलन शुरू करके मांग की थी कि उनको अनुसूचित जनजाति यानी एसटी में शामिल किया जाए। 2007-08 में यह आंदोलन काफी हिंसक रहा था और अनेक लोग इसमें मारे गए थे। गुर्जर समुदाय की मांग के विरोध में मीणा समुदाय ने मोर्चा खोला था। उनका कहना है कि अगर गुर्जरों को एसटी में शामिल करके आरक्षण दिया गया तो वे विरोध में आंदोलन करेंगे। इसी तरह का आंदोलन मणिपुर में चल रहा है, जिसमें पिछले हफ्ते करीब 60 लोग मारे गए हैं। वहां की बहुसंख्यक मैती आबादी के लोग एसटी सूची में शामिल होना चाहते हैं और सबसे बड़ी आदिवासी आबादी यानी कूकी इसका विरोध कर रहे हैं।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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