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चीन-रूस की धुरी पर पूरा दक्षिण एशिया

new era of world politics

पूर्वी, दक्षिण पूर्वी और मध्य एशियाई देशों की तरह अब पूरा दक्षिण एशिया भी चीन की धुरी पर घूमने लगा है। कारोबार के मामले में दक्षिण एशिया के ज्यादातर देश चीन पर निर्भर हैं। एक तरह से दक्षिण एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था चीन पर निर्भर हो गई है। भारत का चीन से आयात जहां एक साल में एक सौ अरब डॉलर पहुंचा है वही पड़ोसी बांग्लादेश की निर्भरता भी चीन पर बढ़ रही है। चीन से उसका आयात 16 अरब डॉलर है, जबकि निर्यात एक अरब डॉलर भी नहीं है। बांग्लादेश के विदेशी कारोबार में 15 फीसदी से ज्यादा हिस्सा चीन का है। दूसरे स्थान पर भारत है, जो चीन का एक तिहाई है। उधर पाकिस्तान का तो चीन गाडफादर है। हाल के आर्थिक संकट में भी चीन ने उसे कर्ज देकर बचाया। उसके ऊपर 130 अरब डॉलर का कर्ज है, जिसमें 30 अरब डॉलर का कर्ज अकेले चीन का है। श्रीलंका पूरी तरह से चीन के कर्ज के जाल में फंसा हुआ है।

नतीजा यह है कि दक्षिण एशिया के देश अंतरराष्ट्रीय संबंधों में और कूटनीति में भी चीन के हिसाब से काम करने लगे हैं। चूंकि रूस और चीन एक साथ हैं और यदि रोजमर्रा की जरूरत की चीजें चीन से आ रही हैं तो सैन्य साजो सामान और पेट्रोलियम, फर्टिलाइजर आदि की सप्लाई भी रूस से ही हो रही है। इसलिए दक्षिण एशिया के देश इन दोनों बड़े तानाशाह देशों का साथ दे रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में पिछले एक साल में यूक्रेन युद्ध के लेकर जितने भी प्रस्ताव आए हैं लगभग उन सभी में दक्षिण एशिया के देशों ने रूस का साथ दिया है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर जैसा चीन ने व्यवहार किया वैसे ही भारत सहित सभी बड़े दक्षिण एशियाई देशों ने किया है।

सोचें, जब भारत को रूस और चीन से कारोबार करना है, रूस से हथियार, पेट्रोलियम और फर्टिलाइजर खरीदना है और अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रूस का साथ देना है तो फिर अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया या ब्रिटेन जैसे देशों के साथ बने बहुपक्षीय मंचों पर शामिल होने का क्या मतलब है? मिसाल के तौर पर भारत क्वाड का हिस्सा है। वह एशिया-प्रशांत में चीन की विस्तारवादी नीतियों के खिलाफ अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ है। एक दूसरा संगठन बना है, जिसमें ब्रिटेन भी शामिल है। लेकिन दूसरी तरफ भारत शंघाई ग्रुप जैसे चीन-रूस के मंचों से जुड़ा हुआ है वहीं इनके जरिए चीन के आर्थिक विस्तारवाद का विरोध भी नहीं कर रहा है, उलटे उसका शिकार हो रहा है। बाजार बना हुआ है। चीन से भारत का आयात एक सौ अरब डॉलर से ज्यादा हो गया है। भारत की रीति नीति के ये विरोधाभास क्या अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया आदि देश नहीं समझ रहे हैं? उनकी भी मजबूरी है, जो वे भारत को साथ अपने को जोड़े हुए हैं और पटा रहे है लेकिन इस मजबूरी की कूटनीति में भारत को जब भी बड़ा झटका लगेगा तो वह लम्हे कीखता होगी।

By हरिशंकर व्यास

भारत की हिंदी पत्रकारिता में मौलिक चिंतन, बेबाक-बेधड़क लेखन का इकलौता सशक्त नाम। मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक-बहुप्रयोगी पत्रकार और संपादक। सन् 1977 से अब तक के पत्रकारीय सफर के सर्वाधिक अनुभवी और लगातार लिखने वाले संपादक।  ‘जनसत्ता’ में लेखन के साथ राजनीति की अंतरकथा, खुलासे वाले ‘गपशप’ कॉलम को 1983 में लिखना शुरू किया तो ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ में लगातार कोई चालीस साल से चला आ रहा कॉलम लेखन। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम शुरू किया तो सप्ताह में पांच दिन के सिलसिले में कोई नौ साल चला! प्रोग्राम की लोकप्रियता-तटस्थ प्रतिष्ठा थी जो 2014 में चुनाव प्रचार के प्रारंभ में नरेंद्र मोदी का सर्वप्रथम इंटरव्यू सेंट्रल हॉल प्रोग्राम में था।आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों को बारीकी-बेबाकी से कवर करते हुए हर सरकार के सच्चाई से खुलासे में हरिशंकर व्यास ने नियंताओं-सत्तावानों के इंटरव्यू, विश्लेषण और विचार लेखन के अलावा राष्ट्र, समाज, धर्म, आर्थिकी, यात्रा संस्मरण, कला, फिल्म, संगीत आदि पर जो लिखा है उनके संकलन में कई पुस्तकें जल्द प्रकाश्य।संवाद परिक्रमा फीचर एजेंसी, ‘जनसत्ता’, ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, ‘राजनीति संवाद परिक्रमा’, ‘नया इंडिया’ समाचार पत्र-पत्रिकाओं में नींव से निर्माण में अहम भूमिका व लेखन-संपादन का चालीस साला कर्मयोग। इलेक्ट्रोनिक मीडिया में नब्बे के दशक की एटीएन, दूरदर्शन चैनलों पर ‘कारोबारनामा’, ढेरों डॉक्यूमेंटरी के बाद इंटरनेट पर हिंदी को स्थापित करने के लिए नब्बे के दशक में भारतीय भाषाओं के बहुभाषी ‘नेटजॉल.काम’ पोर्टल की परिकल्पना और लांच।

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