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‘डिपार्चर लाउंज’ है मोक्ष!

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जापान ने बुढ़ापे के डिपार्चर लाउंजको सूर्योदयका नाम दिया है। वहां जिंदगी में पुनर्जिंदगी का मनुष्य अनुभव है। सोचें, लोगों द्वारा फुरसत और बिना किसी चिंता के शगल और शौक की अनुभूतियों में जिंदगी को जीना। बागवानी, कैलीग्राफी, तैराकी, पर्वतारोहण, खेल-कूद, कुकिंग, कम्युनिटी सेवा, लिखना, कविता करना, चित्रकारी, हैंडिक्राफ्ट, पॉटरी या जिस कंपनी से रिटायर हुए उसी में कम घंटों का छोटा काम करके या चैरी गार्डन, चिड़ियाघर में टूरिस्टों को घुमाने या गांव-कस्बे-छोटे शहर में स्कूल-नर्सरी के बच्चों की मदद में रम कर उनके बचपन के बीच का सुख। ध्यान रहे जापान में ऐसी जिंदगी जीते हुए आज 28 प्रतिशत आबादी है।

जिंदगी की आखिरी फील, उसका उपसंहार क्या? जवाब में सोचना होगा कि फील याकि बोध करने वाला कौन? व्यक्ति के सांस लेते हुए क्या उसके द्वारा जिंदगी पर उपसंहार सोचना संभव है?  दूसरी बात, मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार तक शोक, खेद या श्रद्धांजलि मेंपरिजन मृत आत्मा पर जो कुछ कहते है, वह उनका अपना ख्याल होता है न कि दिवगंत के अपनी जिंदगी के मायने। कोई लेखक कितनी ही रिसर्च और बारीकी से किसी की जीवनी लिखे, वह नहीं बता सकता कि जिंदगी भोगने वाले का अपना जिंदगी अर्थ क्या था? उसने अपनी जिंदगी पर क्या सोचा होगा? उसने जिंदगी जिंदादिली से गुजारी या मुर्दादिली से? मनुष्य जीवन जीया या पशु जीवन? मेरा मानना है कि यदि किसी ने जिंदगी को जिंदादिली जीया तो वह निज जीवन की कुल फील का अहसास जीवन उत्तरार्ध में लिए हुए हो सकता है। उम्र का उसका बुढ़ापा जाहिर करता है कि वह मोक्ष प्राप्त है या मरघट की चिंता करता बंधुआ!

बुढ़ापा दो तरह का होता है। एक, ‘डिपार्चर लाउंज’ में जिंदगी के फुसरती सूर्योदय को जीता हुआ और दूसरा मसान में बैठा अंधेरे की प्रतीक्षा में। जिन्होंनेजीवन को जिंदादिली से जीया है वे ‘डिपार्चर लाउंज’ में अपनी मनोदशा के बल से दूसरी जिंदगी बनाए होते हैं। जबकि मुर्दादिल जिंदगी जी कर आए लोग मृत्यु के ख्याल में पाप-पुण्य के टोटकों, कुंठाओं और भूख भरी छटपटाहट में होते हैं। ये दो मनोदशा व्यक्ति विशेष की निज जिंदगी की फील और मोक्ष का खुलासा करती है।

अहम बात मनुष्य का निज जीवन। इसी में इंसान बनाम पशु का भी फर्क है। मनुष्य में यह चेतना कि अकेले आया था और अकेले जाएगा तो वह उसके ‘निज अस्तित्व’ के बोध की समझ है। इस तरह की चेतना पशु की नहीं होती है। पशु तो झुंड में, समाज-सामूहिकता या किसी गड़ेरिए की रेवड़ में या पिंजरे में पैदा होता है और मरता है। भला उसके लिए क्या जिंदादिली? भेड़ का भला क्या मोक्ष? पशु की न निजता है न जीवन जीने का कोई नजरिया और न उसका कोई फन, कोई रसरंग और बुद्धि है। पशु के लिए जिंदादिली बनाम मुर्दादिली या स्वर्ग-नरक का अर्थ नहीं है। वह तो बस समूह संग जीने और समय काटने के लिए है, जबकि मनुष्य अपने होने की चेतना में अपने लिए जीता है। उसकी वह व्यवस्थाएं गढ़ता है। उनसे मनुष्य मन-मष्तिष्क में जीवन की चेतना और खिलती है। उसी के अंदाज़ में फिर लम्हों को जीता है।

सो, मनुष्य की निजता का अर्थ भारी है। जो देश और समाज मनुष्य की निजता का मान नहीं करता, उसकी प्राइवेसी, स्वतंत्रताओं को भोगने-खिलाने का आग्रही नहीं है वह देश नहीं, बल्कि पशु रेवड़ है। उसमें जिंदादिली और मोक्षदायी जिंदगी की प्राप्ति बहुत दुर्लभ है! वैसा कुछ हो सकना चंद बुद्ध पुरूषों के लिए ही संभव है!

मसला निज जिंदगी के मोक्ष का है। इस बात को आधुनिक जीवन के अनुभवों में बूझें तो लगेगा मानों जिंदगी के उत्तरार्ध में सब कुछ छुपा है। याकि 60-65 वर्ष की उम्र के बाद। प्रौढ़ अवस्था से पूर्व की अकाल मृत्यु का मामला अलग है। मगर जिस व्यक्ति ने प्रौढ़ अवस्था से पहले तक जीवन को स्वस्थता और क्षमताओं के अनुसार स्वतंत्रता में जीया है तो वह निश्चित ही खुद की जिंदगी का अंतिम सत्य,कुल फील पा सकता है। उसका ‘डिपार्चर लाउंज’ स्वांत सुखाय में वह आंनद-संतोष लिए होगा जो उसका असल मोक्ष!

क्या इस तरह सोचना हम हिंदुओं के पल्ले पड़ सकता है? मुश्किल है। तब जरा जापान के लोगों की जिंदगी के ‘स्टेट ऑफ माइंड’ पर गौर करें। जापान से जाने कि एक जिंदादिल कौम में मनुष्य अपने उत्तरार्ध को ‘दूसरी जिंदगी’ में कन्वर्ट करके कैसे मोक्ष प्राप्त करता हैं! जापान अपनी संस्कृति और परंपरा में जीने वाला देश है। लेकिन वहां की अद्भुत आधुनिक जिंदगी जापानियों के लिए मोक्ष से कम नहीं है! ऐसी जिंदगी, जिसमें सेहत चंगी और औसत आयु 85 वर्ष से भी अधिक। बुढ़ापा ऊर्जावान तथा जवानी के वक्त से भी ज्यादा दिमागी और शारीरिक क्षमता संभव बनाए हुए। कुल मिलाकर बुढ़ापा ऐसा, जिसे देख देवता भी रंज करें कि वाह! क्या खूब मजा और आनंद!

जापान में विकास की सफलताओं ने लोगों की जीवन प्रत्याशा बढ़ाई। सरकार ने सन् 2013 से लोगों की रिटायरी की उम्र को धीरे-धीरे बढ़ाते हुए 65 वर्ष बनाया। उस नाते सुख-लक्जरी में निज जिंदगी को जीने के दो नामी देशों जापान और फ्रांस का फर्क दिलचस्प है। फ्रांसीसी लोग मानते है कि उनकी संस्कृति, जिंदगी जीने के अंदाज में कम से कम चाकरी हो। बंधन हो। इसलिए जल्दी रिटायर होना चाहिए। वही जापानी लोग देरी की रिटायरी में भी फुरसत से क्रिएटिव हैं। दो सभ्यताएं और दोनों के बुढ़ापे में मोक्ष, पूर्णता में जिंदगी जीने की अलग एप्रोच। फ्रांस के एक समाजवादी राष्ट्रपति मितरां ने फ्रांसीसियों के मिजाज में रिटायरमेंट उम्र को 65 से घटा कर 60 साल किया। साथ ही सप्ताह में सिर्फ 39 घंटे काम और साल में छह सप्ताह वैधानिक (पर्व-त्योहारों के अलावा) का भी कानून। जाहिर है इससे फ्रांस की सरकार पर पेंशन का भारी बोझ।इस हकीकत के कारण मौजूदा राष्ट्रपति मैक्रों ने सेवानिवृत्ति की उम्र को 62 से 64 किया फ्रांसीसी लोग सड़कों पर उतर आए। फ्रांस की बहस में जनता में यह लोकप्रिय दलील है कि हम दुनिया में सबसे अलग हैं और उस नाते हम नहीं चाहते हैं काम केअधिक बंधन में जिंदगी गुजारना!

बहरहाल, जापान में 65 वर्ष से पहले ही काफी लोग रिटायरमेंट ले लेते हैं, जबकि पहले से ही जापान में 28 प्रतिशत आबादी 65 साल से ऊपर है और औसत जीवन प्रत्याशा 85 वर्ष है। वहां दीर्घायुता बढ़ती हुई है तो आबादी में बूढ़ों का अनुपात भी। मगर बुढापे की अवस्था का अर्थ है मोक्ष का सूर्योदय! हां, 65 वर्ष की उम्र के साथ ‘सेकेंड लाइफ’ के‘सूर्योदय’ से शुरू नई सुनहरी जिंदगी। इसके लिए तमाम तरह की व्यवस्थाएं भी।

मैं जापान और स्कैंडिनेवियाई देशों को पृथ्वी का उम्र निरपेक्ष स्वर्ग मानता हूं। इन देशों ने जिंदगी की हर अवस्था, शरीर जीवन के हर चक्र को उसकी जरूरत, अनुभूति व तासीर के माफिक विकसित बनाया है। बचपन को बचपने के सुख से तो नौजवानी को शिक्षा-पुरुषार्थ और एडवेंचर के मौके दे कर। फिर बुढ़ापा तो वह मानों ‘दूसरी जिंदगी’ जिसकी सुख-सुविधाएं-क्रिएटिविटी की अनुभूति का आनंद असल मोक्ष।

जापान ने बुढ़ापे के ‘डिपार्चर लाउंज’ को सुर्यास्त की बजाय ‘सुर्योदय’ का नाम दिया है। वहां जिंदगी में पुनर्जिंदगी का मनुष्य अनुभव है। सोचें, लोगों द्वारा फुरसत से बिना किसी चिंता के अपने शगल और शौक की अनुभूतियों में जिंदगी को जीना। बागवानी, कैलीग्राफी, तैराकी, पर्वतारोहण, खेल-कूद, कुकिंग, कम्युनिटी सेवा, लिखना, कविता करना, चित्रकारी, हैंडिक्राफ्ट, पॉटरी या जिस कंपनी से रिटायर हुए उसी में कम घंटों का छोटा काम करके या चैरी गार्डन, चिड़ियाघर में टूरिस्टों को घुमाने या गांव-कस्बे-छोटे शहर में स्कूल-नर्सरी के बच्चों की मदद में रम कर उनके बचपन के बीच का सुख।

ध्यान रहे जापान में ऐसी जिंदगी जीते हुए आज 28 प्रतिशत आबादी है। आने वाले दशकों में बूढ़ों की यह आबादी 50 प्रतिशत से अधिक होगी। पूछ सकते हैं तब जापान में उत्पादकता, कारोबार-फैक्टरी-निर्माण का काम कैसे है और होगा? वह रोबोट से हो रहा है और होगा। दो-तीन वर्षों में एआई चैटजीपीटी जैसे दिमागी टूल भी विकसित हो जाएंगे। तभी विकसित देशों में यह विचार बनता हुआ है कि मशीनें काम कर रही हैं तो आबादी को घर बैठे वेतन मिले। पृथ्वी ही मनुष्य जिंदगी का बंधन मुक्त मोक्ष है। स्वर्ग है

जापान की हकीकत है जो समाज ने आबादी के अनुपात में बूढ़े लोगों का सूर्योदय बनाया। सरकार ने दूसरी जिंदगी की व्यवस्थाएं बनाईं। निश्चित ही इसमें खर्चे का सौ टका बंदोबस्त नहीं है। मगर वहां क्या तो जवान और क्या बूढ़े सभी का सोचना अलग है। क्या भारत में हम कल्पना कर सकते हैं कि जापान में 50 साल की उम्र में लोग दूसरे देशों में ‘लॉग टर्म टूरिज्म’ करते हैं। वहां रहते हुए वे बूझते हैं कि जिंदगी को और कैसे अच्छा जीया जा सकता है! फिर उस अनुभव में वे अपनी दूसरी जिंदगी (बुढ़ापे) की प्लानिंग करते हैं। सेहत और पैसे से जो बहुत समर्थ हैं वे जापानी बुढ़ापे में एवरेस्ट पर चढ़ने या तैराकी में रिकॉर्ड बनाने की धुन पालेंगे। पैसे की प्लानिंग का जहां सवाल है तो महानगर में रहने वाला जापानी अपना फ्लैट, घर यह सोचते हुए बेच डालेगा कि महानगर में इतना हाउस टैक्स देने की बजाय मकान बेच कर क्यों न छोटे मनपसंद के इलाके में घर ले कर शांत जिंदगी जीये! बकौल एक जापानी महिला योको मोरी- उन्हें बहुत बाद में मालूम हुआ कि जिंदगी जीना बहुत सस्ता है। रिटायर होने के बाद हमने अपना महानगर का मकान बेचा और उस खूबसूरत जगह जा कर सेटल हुए जहां पहले छुट्टी मनाने जाते थे। यहां कितनी सस्ती और मनभावक जिंदगी है!

अविश्वसनीय सत्य है कि तीस-चालीस साल की दूसरी जिंदगी (रिटायरमेंट) में जापानियों की मानसिक-कॉग्निटिव क्षमता, शरीर की मांसपेशियां घटने की बजाय बढ़ी दिखी। तभी क्वालिटी लाइफ के साथ बुढ़ापा स्वस्थ और कंपीटिटिव। जवानी में मीइयुरा (Miura) एवरेस्ट जा कर एवरेस्ट चढ़ नहीं पाया था। मगर 70 साल की उम्र में मीइयुरा ने एवरेस्ट पर झंडा फहराया। वे फिर भी थके नहीं। 75 वर्ष और 80 वर्ष की उम्र में भी वे एवरेस्ट के शिखर पर अपने आनंद, मोक्ष का झंडा लिए खड़े थे। सौ साल की उम्र में एक जापानी महिला नोह (थियेटर की बैकग्राउंड लिए हुए) ने ‘मैं सौ साल की वृद्ध और दुनिया की श्रेष्ठ सक्रिय तैराक” (I’m 100 years old and the world’s best active swimmer) पुस्तक प्रकाशित की। उन्होंने सचमुच अपनी आयु वर्ग में तैराकी के रिकॉर्ड बनाए। 2019 में उनकी मृत्यु 108 वर्ष की उम्र में हुई। ऐसे असंख्य रिकॉर्ड जापानी बूढ़ों के सूर्योदय (डिपार्चर लाउंज) जीवन में मिलेंगे। किसी ने उसेन बोल्ट को दौड़ते देख खुद दौड़ने का रिकॉर्ड बनाया तो कई जापानी खान-पान व पारंपरिक कला के सिद्धहस्त नामी चेहरे बने।

सो, क्या अब भी आप नहीं मानेंगे कि हम हिंदुओं को अपने बुढ़ापे को ‘डिपार्चर लाउंज’ में फील कर जिंदगी का उपसंहार बनाना और सोचना चाहिए! (जारी)

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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