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शिक्षा में विदेशी दखल: इसके खतरे भी हैं ?

विश्व विद्यालय अनुदान आयोग ने एक जबर्दस्त नई पहल की है। उसने दुनिया के 500 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के लिए भारत के दरवाजे खोल दिए हैं। वे अब भारत में अपने परिसर स्थापित कर सकेंगे। इस साल भारत के लगभग 5 लाख विद्यार्थी विदेशों में पढ़ने के लिए पहुंच चुके हैं। विदेशी पढ़ाई भारत के मुकाबले कई गुनी मंहगी है। भारत के लोग अपनी कड़ी मेहनत की करोड़ों डालरों की कमाई भी अपने बच्चों की इस पढ़ाई पर खर्च करने को मजबूर हो जाते हैं।

इन लाखों छात्रों में से ज्यादातर छात्रों की कोशिश होती है कि विदेशों में ही रह जाएं और वहां रहकर वे मोटा पैसा बनाएं। भारत से प्रतिभा पलायन का यह मूल स्त्रोत बन जाता है। अब जबकि विदेशी विश्वविद्यालय भारत में खुल जाएंगे तो निश्चय ही यह प्रतिभा-पलायन घटेगा और देश का पैसा भी बचेगा। इसके अलावा वि.वि.अ. आयोग की मान्यता है कि दुनिया की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा-पद्धतियां भारत में प्रारंभ हो जाएंगी, जिसका लाभ हमारे पड़ौसी देशों के विद्यार्थी भी उठा सकेंगे।

इन सब लाभों की सूची तो ठीक है लेकिन क्या हमारे शिक्षाशास्त्रियों ने इस मामले के दूसरे पहलू पर भी विचार किया है? इसके दूसरे पहलू का सबसे पहला बिंदु यह है कि भारत में चल रहे विश्वविद्यालयों का क्या होगा? ये विश्वविद्यालय पिछले डेढ़-दो सौ साल से अंग्रेजों और अमेरिकियों के नकलची बने हुए हैं? क्या वे ठप्प नहीं हो जाएंगे? जिन माता-पिताओं के पास पैसे होंगे, वे अपने बच्चों को हमारे भारतीय विश्वविद्यालयों में क्यों पढ़ाएगें? वे सब विदेशी विश्वविद्यालयों के पीछे दौड़ेंगे।

दूसरा, इन विदेशी विश्वविद्यालयों को शुल्क, पाठ्यक्रम, प्रवेश-नियम और अध्यापकों की नियुक्ति में पूर्ण स्वायत्तता होगी। वे भारत के हित की बात पहले सोचेंगे या अपने देश के हित की बात? तीसरा, क्या अब हमारे देश में इस नई शिक्षा-व्यवस्था के कारण युवा-पीढ़ी में ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं पैदा हो जाएगा? चौथा, हमारे देश की सारी शिक्षा-व्यवस्था क्या तब पूर्ण नकलची बनने की कोशिश नहीं करेगी? पांचवाँ, विदेशी शिक्षा-संस्थाओं में पढ़ाई का माध्यम क्या होगा?

क्या वे भारतीय भाषाओं को माध्यम बनने देंगे? कतई नहीं। उसका नतीजा क्या होगा? प्रतिभा-पलायन रूक नहीं पाएगा। छठा, इस भाजपा सरकार को बने आठ साल हो गए लेकिन नई शिक्षा-नीति किसी कागजी शेर की तरह खाली-पीली दहाड़ मारती रहती है। उसमें किसी भारतीयता या मौलिकता का समावेश अभी तक नहीं हुआ है। जब तक सर्वोच्च अध्ययन और अनुसंधान भारतीय भाषाओं के जरिए नहीं होगा और अंग्रेजी का एकाधिकार समाप्त नहीं होगा, यह नई पहल काफी नुकसानदेह साबित हो सकती है।

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By वेद प्रताप वैदिक

हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले पत्रकार। हिंदी के लिए आंदोलन करने और अंग्रेजी के मठों और गढ़ों में उसे उसका सम्मान दिलाने, स्थापित करने वाले वाले अग्रणी पत्रकार। लेखन और अनुभव इतना व्यापक कि विचार की हिंदी पत्रकारिता के पर्याय बन गए। कन्नड़ भाषी एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने उन्हें भी हिंदी सिखाने की जिम्मेदारी डॉक्टर वैदिक ने निभाई। डॉक्टर वैदिक ने हिंदी को साहित्य, समाज और हिंदी पट्टी की राजनीति की भाषा से निकाल कर राजनय और कूटनीति की भाषा भी बनाई। ‘नई दुनिया’ इंदौर से पत्रकारिता की शुरुआत और फिर दिल्ली में ‘नवभारत टाइम्स’ से लेकर ‘भाषा’ के संपादक तक का बेमिसाल सफर।

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