भारत का लोकतांत्रिक सिस्टम भी मतभेद की खाई को पाटने में विफल होता नजर आ रहा है। बल्कि लोकतांत्रिक जनादेश तय होने के हर मौके पर यह खाई कुछ और अधिक चौड़ी होती जा रही है।
फिल्म केरला स्टोरी पर जिस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रिया हुई है, उससे एक बार फिर इसी बात की पुष्टि होती है कि भारत में हर कथानक दो खेमों में बंटता जा रहा है। हर ऐसी घटना या कहानी समाज में पहले ही ठोस रूप ले चुके ध्रुवीकरण को और तीखा बना जाती है। यह तो निसंदेह है कि केरला स्टोरी या कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्में एक खास सियासी मकसद से बनाई गई हैँ। इनके जरिए पहले कानाफूसी से शुरू होकर फिर सोशल मीडिया पर छायी धारणाओं को ऐतिहासिक सच के रूप में परदे पर उतारने की कोशिश की गई है। ये फिल्में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और उसके वैचारिक स्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दायरे में दशकों से प्रचलित रही चर्चाओं को एक तरह की प्रामाणिकता प्रदान करती हैं। जाहिर है, इससे समाज के उन बाकी हिस्सों में एक तरह की व्यग्रता पैदा होती है, जो ऐसी चर्चाओं को सच नहीं मानते या सत्ताधारी जमात के दुष्प्रचार का हिस्सा मानते हैँ। फिर कश्मीर फाइल्स जब बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड तोड़ रही थी, तब इस खेमों में बेचैनी और लाचारी का आलम था। लेकिन केरला स्टोरी पर जहां विपक्ष की ताकत है, उन्होंने पलट वार किया है।
पश्चिम बंगाल में फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, तमिलनाडु के मल्टीप्लेक्स मालिकों ने खुद ही फिल्म का बायकॉट करने का फैसला किया। दूसरी तरफ मध्य प्रदेश में फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया गया है, जबकि कर्नाटक में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस फिल्म का प्रचार करते और फिल्म का विरोध करने के कारण कांग्रेस को आतंकवाद का समर्थक बताते नजर आए। स्पष्ट है, देश में केरल की इस कथित कहानी ने विभाजन को और चौड़ा कर दिया है। लेकिन यह बात ध्यान में रखने की है कि कोई देश ऐसे बंटे कथानकों और ध्रुवीकृत खेमों के बीच आगे बढ़ना तो दूर, लंबे समय तक शांति से चल भी नहीं सकता। भारत का लोकतांत्रिक सिस्टम भी इस खाई को पाटने में विफल होता नजर आ रहा है। बल्कि लोकतांत्रिक जनादेश तय होने के हर मौके पर यह खाई कुछ और अधिक चौड़ी होती जा रही है।