अरविंद पनगढ़िया की अध्यक्षता वाला 16वां वित्त आयोग अपनी सिफारिशें तैयार कर रहा है। उससे पहले पनगढ़िया ने कहा है कि देश के 28 राज्यों में से 22 ने केंद्र द्वारा वसूले जाने वाले करों में राज्यों का हिस्सा बढ़ाने की मांग की। गौरतलब है कि 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर राज्यों का हिस्सा बढ़ा कर 41 फीसदी किया गया था। यानी केंद्र सरकार कर के रूप में एक सौ रुपए वसूलेगी तो राज्यों को 41 रुपया दिया जाएगा और बाकी 59 रुपए केंद्र सरकार रखेगी। शुरुआत में राज्यों को इसमें दिक्कत नहीं थी। लेकिन पिछले कुछ बरसों में खास कर कोरोना महामारी के बाद राज्यों की समस्या बढ़ी है। वस्तु व सेवा कर यानी जीएसटी को लेकर उनकी मुश्किलें अलग चल रही हैं। राज्य सरकारें जीएसटी पर इसलिए राजी हुई थीं क्योंकि केंद्र ने कहा था कि उनका जो भी कर संग्रह है उसमें हर साल 14 फीसदी की दर से बढ़ोतरी होगी और अगर नहीं होती है तो उतना मुआवजा केंद्र सरकार पांच साल तक यानी जुलाई 2022 तक देगी। वह पांच साल की अवधि पूरी हो गई। इस बीच कम से कम दो वित्त वर्ष कोरोना में गुजरे, जिससे राज्यों का राजस्व घटा और केंद्र का भी घटा। उसमें केंद्र ने राज्यों को मुआवजे के अलावा सिर्फ कर्ज की गारंटी दी। यानी कर का हिस्सा नहीं बढ़ाया।
सो, जीएसटी की वजह से उपजी समस्याएं अलग हैं। लेकिन कोरोना के समय केंद्र सरकार ने ढेर सारे सेस और सरचार्ज लगा दिए। ध्यान रहे सरकार जब सेस या सरचार्ज लगाती या बढ़ाती है या कोई स्पेशल टैक्स लगाती है तो वह पूरा का पूरा केंद्र सरकार के खजाने में जाता है। उसमें से राज्यों को हिस्सा नहीं मिलता है। केंद्र सरकार ने राज्यों का राजस्व कम करने या स्थिर रखने और अपना कर बढ़ाने के लिए यह रास्ता चुना। उसने सेस और सरचार्ज बढ़ाने शुरू किए और जो डिवाइसिव पूल है यानी बंटवारे वाले कर की जो श्रेणी है उसको स्थिर रखा। इसका नतीजा यह हुआ है कि राज्यों को कर से होने वाली आय कम होती गई। एक आकलन के मुताबिक भले राज्यों को अभी केंद्र सरकार के वसूले गए करों में से 41 फीसदी मिलने की बात कही गई है लेकिन असल में राज्यों का हिस्सा घट कर 31 फीसदी रह गया है। सरकार के आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 2020-21 से लेकर 2023-24 के बीच राज्यों को वास्तविक शेयर 31 फीसदी मिला, जो 2020-21 से पहले यानी कोरोना महामारी से पहले 35 फीसदी था। केंद्र सरकार के अपने आंकड़ों के मुताबिक 2015-16 से 2019-20 तक केंद्र के हिस्से वाले कर में सेस और सरचार्ज का हिस्सा 12.8 फीसदी था, जो 2020-21 से 2023-24 की अवधि में बढ़ कर 18.5 फीसदी हो गया। जाहिर है कि केंद्र ने सेस और सरचार्ज से अपनी आमदनी बढ़ाई तो उसका असर राज्यों को मिलने वाले कर शेयर पर पड़ा और वह घटता गया।
यह भी ध्यान रखने के जरुरत है कि जीएसटी के लिए राजी होने के बाद राज्यों के पास अपना राजस्व बढ़ाने के बहुत विकल्प नहीं रह गए हैं। वे आबकारी यानी शराब और पेट्रोलियम उत्पादों पर ही टैक्स बढ़ा सकते हैं। लेकिन पेट्रोलियम उत्पादों पर टैक्स बढ़ाने से सरकारों को अलोकप्रियता का खतरा रहता है और दूसरे पेट्रोलियम उत्पाद महंगे होने का असर व्यापक रूप से सभी वस्तुओं की कीमत पर पड़ता है। वैसे भी ज्यादातर राज्यों ने पेट्रोल और डीजल की कीमत पहले ही सर्वोच्च स्तर पर पहुंचा दी है और कच्चे तेल की कीमतों में कमी के बावजूद उसका लाभ आम आदमी को नहीं दिया है। बहरहाल, राज्य सरकारें अपना राजस्व अपने दम पर नहीं बढ़ा पा रही हैं और केंद्र पर उनकी निर्भरता बढ़ती जा रही है। दूसरी ओर केंद्र बंटवारे वाली श्रेणी के करों को स्थिर रख कर सेस और सरचार्ज बढ़ा रहा है या विशेष कर लगा रहा है। सरकार दो नए सेस लगाने की तैयारी कर रही थी। जीएसटी का मुआवजा सेस खत्म होने के बाद सरकार ने हेल्थ और क्लीन एनर्जी सेस लगाने पर विचार शुरू किया था। अगर ऐसा होता है कि कर का ढांचा पहले से भी ज्यादा जटिल हो जाएगा। विरोध की वजह से इसको फिलहाल स्थगित कर दिया गया है। हालांकि यह पता नहीं चल सका है कि अगर ये दो सेस लगाए जाते तो इनको डिवाइसिव पूल में यानी बंटवारे वाली श्रेणी में रखा जाता या केंद्र सरकार अकेले रखती। बहरहाल, यह कहने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि केंद्र सरकार के पास बहुत से साधन हैं, जिनसे वह राजस्व संग्रह बढ़ा सकती है लेकिन राज्यों के पास ऐसे विकल्प बहुत सीमित हो गए हैं।
तभी राज्यों की लड़खड़ाती वित्तीय स्थिति को संभालने का तरीका यह है कि केंद्रीय करों में बंटवारे वाली श्रेणी में राज्यों का हिस्सा बढ़ाया जाए। अरविंद पनगढ़िया ने कहा है कि 28 में से 22 राज्यों ने करों में राज्यों का हिस्सा 41 से बढ़ा कर 50 फीसदी करने की मांग की है। इसमें भाजपा शासित राज्य भी हैं। जाहिर है वित्तीय स्थिति सिर्फ विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्यों में ही नहीं बिगड़ी है। केंद्र सरकार के सेस और सरचार्ज बढ़ाने और बंटवारे वाली श्रेणी को कम करते जाने का असर भाजपा शासित राज्यों पर भी पड़ा है। तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिस सहकारी संघवाद की बात करते हैं उसे साकार करने के लिए राज्यों का कर का हिस्सा बढ़ाना होगा। इसे लेकर 16वें वित्त आयोग के प्रमुख अरविंद पनगढ़िया का कहना है कि अगर एक बार में केंद्र का हिस्सा नौ फीसदी घटाया जाए यानी 59 से 50 फीसदी किया जाए तो इसका बहुत बड़ा असर होगा। यह करना मुमकिन नहीं है।
ध्यान रहे केंद्र सरकार के खर्च में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है। रक्षा खर्च बढ़ता जा रहा है। हाल में पाकिस्तान के साथ संघर्ष के बाद केंद्र ने बजट से बाहर रक्षा बजट में बढ़ोतरी की। इसी तरह बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं पर खर्च बढ़ा है। सरकार लगातार पूंजीगत खर्च बढ़ा रही है। इसलिए उसके राजस्व में नौ फीसदी की कमी से सब कुछ उलटापुलटा होगा। तभी इसका आसान रास्ता यह दिख रहा है कि वित्त आयोग बीच का रास्ता निकाले। यानी नौ फीसदी की कटौती की बजाय चार से पांच फीसदी की कमी करके उतना हिस्सा राज्यों को बढ़ाया जाए। अगर 41 से बढ़ा कर राज्यों का हिस्सा 45 फीसदी भी किया जाता है तो वह एक बड़ी पहल मानी जाएगी। लेकिन इसके साथ ही वित्त आयोग को बहुत सख्ती के साथ केंद्र सरकार को सेस और सरचार्ज लगाने से रोकना होगा। वह कोई नीतिगत अनुशंसा भी कर सकती है, जिसमें सेस और सरचार्ज की सीमा तय की जाए। कुल कर संग्रह के एक निश्चित प्रतिशत से ज्यादा सेस और सरचार्ज लगाने से केंद्र को रोकना चाहिए। अन्यथा केंद्रीय करों में राज्यों का हिस्सा बढ़ा देने के बावजूद राज्यों को कोई खास लाभ नहीं होगा।