चुनावी बॉन्ड्स: काले-सफेद की माया!

चुनावी बॉन्ड्स: काले-सफेद की माया!

मैं शुरू में चुनावी बॉन्ड्स योजना को अच्छा मानता था। आखिर चुनाव में काले धन का सत्य सर्वमान्य है। लेकिन जब मालूम हुआ कि बैंक के जरिए खरीदे-बेचे जाने वाले बॉन्ड्स का ब्योरा गोपनीय रहेगा तो वैसी ही हैरानी हुई जैसे हर समझदार, लोकतंत्रवादी को हुई थी। अब सुप्रीम कोर्ट ने योजना को संविधान विरोधी बताते हुए उसे जैसे खारिज किया है उससे प्रमाणित है कि सोचा क्या और सच क्या!

सोचें, ईमानदारी से दिल पर हाथ रख कर सोचें कि डॉ. मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार के कंट्रास्ट में मई 2014 से पहले जनता की चाहना के मनोनुकूल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैसे अच्छे-अच्छे वायदे किए थे। उसमें सर्वोपरि वादा था अच्छे दिन आएंगे। काला धन सफेद होगा। काली राजनीति, काले पैसों से लड़े जाने वाले चुनाव सफेद पैसे में साफ-सुथरे लड़े जाएंगे। सरकार पारदर्शी होगी। तभी राजनीतिक पार्टियों के चंदे को सफेद बनाने के मकसद की चुनावी बॉन्ड योजना मुझे भी अच्छी लगी।

पर तब पता नहीं था कि साफ-सुथरी, पारदर्शी व्यवस्था लाने के वादे के नाम पर व्यवस्था तथा प्रशासन और अपारदर्शी हो जाएंगे। साथ ही राजनीति और चुनाव भी मायावी हो जाएंगे। सोचना ही मुश्किल होगा कि क्या सत्य है और क्या असत्य? मैं ईवीएम से चुनावी धांधली की धारणा पर विश्वास नहीं करता हूं लेकिन सन् 2024 का आज यह सत्य तो है कि मोदी जादू के मुरीद देश के 40 प्रतिशत मतदाताओं को छोड़ कर 60 प्रतिशत लोगों के रहनुमा याकि विरोधी पार्टियां, ईवीएम को लेकर शंकित हैं। इनका मानना है कि लोगों के दिमाग के चिप गड़बड़ नहीं है, बल्कि मशीनों की गड़बड़ से मोदी का जादू है। ऐसे ही पार्टियों के चंदे, चुनावी खर्च की इलेक्टोरल बॉन्ड्स की योजना पर अविश्वास बना। इसलिए क्योंकि ऐसा कैसे हो सकता है कि किसने किस पार्टी को कितना पैदा दिया यह जानने का हक उस माई बाप जनता को नहीं है, जिसने स्वच्छ-पारदर्शी-सफेद व्यवस्था के वादे पर 2014 में जनादेश दिया था।

यही स्थिति राजनीति में है। और तो और भाजपा के भीतर भी है! कुछ भी पारदर्शिता नहीं। सत्ता और भाजपा पूरी तरह मायावी रूप में है। मानों महाभारत में श्रीकृष्ण द्वारा मायासुर से इंद्रप्रस्थ में बनवाई माया सभा लुटियन दिल्ली में अवतरित हुई हो। इसका कोना-कोना रहस्यमयी! किसी भी कोने, किसी भी लेवल पर पारदर्शिता नहीं। 140 करोड़ आबादी का देश हर तरह, सरकार, कैबिनेट, पार्टी संगठन के हर आयाम में अपारदर्शिता का मारा हुआ है। हर बड़ा फैसला, हर बड़ी नीति जादू की तरह प्रगट होती है और लुप्त हो जाती है और लोग भी भूलते जाते हैं। नोटबंदी से लेकर 25 करोड़ लोगों की गरीबी जैसे कमाल का सब मायावी। क्या भाजपा का कोई भी फन्ने खां बता सकता है कि किन कसौटियों पर उम्मीदवारों के टिकट होते हैं या टिकट कटते हैं या किन कसौटियों में मुख्यमंत्री, मंत्री, राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, स्पीकर, राज्यपाल आदि, आदि बनते हैं।

तभी कल्पना करें उस समय की जब नरेंद्र मोदी का शासन समाप्त होगा तो उनका मायाजाल किस गति को प्राप्त होगा? उसे लोग कैसे याद करते हुए होंगे? तब इलेक्टोरल बॉन्ड योजना क्या कहलाएगी?

Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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