nayaindia farmer protest kisaan andolan मोदी की माया में सत्य (किसान)

मोदी की माया में सत्य (किसान)

मुझे नहीं लगता नरेंद्र मोदी और उनके सलाहकार कभी फुरसत पाते होंगे? कभी ईमानदारी से मन में सोचा होगा कि उन्होंने दस वर्षों में पुण्य कमाया या पाप? वैसे इस बात को इस तरह भी कह सकते हैं कि गुजरात में सीएम से लेकर पीएम की सत्ता के अपूर्व भाग्य से प्रधानमंत्री मोदी की पुण्यता लोगों की स्मृतियों में क्या वैसी रहेगी जैसी वाजपेयी, नरसिंह राव, इंदिरा गांधी, शास्त्री और नेहरू व गांधी के प्रति जनता में सम्मान, पॉजिटिविटी थी, है और रहेगी! मेरा मानना है मोदी और उनके सलाहकार इस तरह नहीं सोचते। वे अपने बनाए मायावी तानेबाने को खुद भी जी रहे हैं। वह मायावी जाल मोदी राज के खत्म होने के साथ तुरंत छूमंतर होगा। तब भारत के सत्य के अनुभव में लोग अपने को निश्चित ही ठगा हुआ जानेंगे। और इसमें वे सब लोग होंगे, जिन्हें चार जातियों के जाल में प्रधानमंत्री ने बांधा है।

मतलब यूथ, महिला, गरीब और किसान। इसमें से एक जाति किसान फिलहाल सड़क पर है। सन् 2014 में प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन की जिद्द के साथ सरकार का कामकाज शुरू हुआ था। पर किसान आंदोलन से सरकार ने मुंह की खाई। फिर किसानों की भलाई के नाम पर तीन बिल लाए गए। किसान दिल्ली की सीमाओं पर बैठ गए। उससे चौतरफा बदनामी हुई। और तो और सिख समुदाय की भावनाओं पर गहरे घाव हुए। अंत में सरकार ने बिल वापिस लिए। तब आंदोलनकारी किसान सरकार के इस वायदे के भरोसे घर लौटे कि उन पर दायर हुई पुलिस एफआईआर खत्म होगी। फसल के न्यूनतम खरीद मूल्य यानी एमएसपी की गारंटी का कानून बनेगा।

लेकिन कोई वादा पूरा नहीं हुआ और किसान अब वापिस सड़क पर हैं। आंदोलनकारी किसानों को गाली देने का यह तर्क ठीक है कि पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यूपी के किसानों का यह धमाल है, जबकि बिहार, पूर्वी यूपी, राजस्थान मतलब बाकी देश के किसान तो आंदोलन नहीं करते हैं। इसलिए यह देश के किसानों का आंदोलन नहीं है, बल्कि खालिस्तानी, देश विरोधी-मोदी विरोधी ताकतों की शह पर सिख, जाट, सम्पन्न किसानों का आंदोलन है।

कैसी बेहूदा बात है। असल में किसानी करने वाले तो ये ही पुरुषार्थी किसान हैं। खाते-पीते किसानों की सरप्लस उपज से ही देश का पेट भर रहा है। यदि पंजाब के किसान की अनुमानित प्रति व्यक्ति आय 26 हजार रुपए है और बिहार के किसान की छह हजार रुपए औसत आय है तो बिहार का गरीब किसान छह महीने का राशन लेकर क्या तो आंदोलन के लिए निकलेगा और उसके पीछे घर के लोग क्या खाएंगे? उसकी तो पेट भरने की स्थायी लड़ाई है। वह भला एमएसपी के लिए क्या लड़ेगा जब उसकी खेती उसकी अपनी जरूरत, न्यूनतम बिक्री की है और बीपीएल कार्ड पर बंट रहे फ्री के राशन और प्रति साल प्रधानमंत्री से मिलते छह हजार रुपए के सालाना धर्मादे से जीवन काटता हुआ है। उस आश्रित गरीब किसान की न कभी उपज दोगनी होनी है और न ही वह दूसरों का याकि पैदा हुई फसल का विक्रेता, निर्यातक होना है।

देश का असली पुरुषार्थी किसान वह है जो सरप्लस फसल पैदा करता है, उसे सरकार और व्यापारी को बेचता है तो स्वाभाविक है जो वह खर्च-आमद का हिसाब लगाए और उपज को मुनाफे के दाम पर बेचे। नए औजार, तौर-तरीकों याकि पूंजीगत खर्च करके पैदावार बढ़ाते हैं। ये ही अन्नदाता हैं। इनकी अनदेखी कर फ्री के राशन, नकद सब्सिडी से गरीब, लघु, सीमांत किसानों के घर बैठे हुए होने के हवाले किसान आंदोलन को बदनाम करने वाली एप्रोच कुल मिलाकर अपने ही बनाए मायावी इकोसिस्टम से किसानी और देश का भट्ठा बैठाना है। हकीकत है कि किसान और किसान की गरीबी, बेचारगी, दयनीयता गरीब भारत का नंबर एक जिम्मेवार कारण है। इस रियलिटी को नरेंद्र मोदी जानते हैं तभी उन्होंने पांच साल में दोगुनी आमदनी करने की गारंटी, फसल के बीमा, मिट्टी, पानी, खाद, बिजली से लेकर सम्मान निधि के नाम पर किसान नाम की जाति का दिल जीतने, उन्हें अमृत चखाने, उनको विकसित भारत का विकसित किसान बतलाने के तमाम प्रपंच रचे, मायावी महाजाल बनाया। लेकिन सत्य तो सत्य। तभी किसान बार-बार सड़क पर उतरता हुआ है।

इसलिए फ्री के राशन, छह हजार रुपए की नकदी जैसी रेवड़ियों के अहसान में लाभार्थी भले वोट मोदी को वोट देते जाएं लेकिन उससे उनकी लालबहादुर शास्त्री की जय जवान, जय किसान वाली पुण्यता न किसानों में बनी है और न बनेगी।

और शास्त्री के ही संदर्भ से सोचें तो जवानों (सेना में भर्ती अग्निवीर हो या जयश्री राम का नारा लगाने वाले नौजवान) याकि नरेंद्र मोदी की यूथ नाम की जाति भी अंततः अपनी बेरोजगारी, भभकी हुई उम्मीदों में तरसती जिंदगी की मोदी राज की याद लिए हुए होगी। सोचें, दस वर्षों में कितने करोड़ नौजवानों को स्थयी नौकरी मिली? नौकरियां अब कामचलाऊ हैं। डिलीवरी-ऑफिस ब्वॉय वाली हैं, पंद्रह-बीस हजार रुपए की पकौड़ा सर्विस की है। मैं हैरान हूं कि कि रिकॉर्ड तोड़ महंगाई के बीच पंद्रह-बीस हजार रुपए की अस्थायी नौकरियों से नौजवान परिवारों का कैसे घर चलता होगा? दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों की झुग्गी-झोपड़ियों में रह रहे लडक़े-लड़कियों की जिंदगी कैसे गुजर रही है? मगर मायावी राज की यह त्रासद क्रूरता है जो उत्तर भारत में प्रोपेगेंडा है कि लाड़ली बहना लखपति हो गई! घर बैठे लखपति लाड़लियां, लखपति दीदी होंगी। उन्हें कर्ज देंगे, पकौड़े बेचने की दुकानें खोलेंगी और देश की महिला शक्ति का चहुंमुखी विकास। वैसा ही जैसा पिछले दस वर्षों में 25 करोड़ गरीब लोगों के गरीबी रेखा से ऊपर उठने का मायावी ढिंढोरा है।

सो, किसान आंदोलन बानगी है, मोदी राज के मायावी वक्त की। इसमें न सत्य है और न पुण्यता। जब भी लोग माया राज से मुक्त होंगे तो नोट करके रखें 140 करोड़ लोगों का देश तब यह अनुभव करता हुआ होगा कि इतना तो हम इतिहास में पहले कभी नहीं ठगे गए!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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