nayaindia Five state assembly election चुनावः पांच साला खरीद-फरोख्त मंडी!

चुनावः पांच साला खरीद-फरोख्त मंडी!

उफ! आजादी का कथित अमृत काल। और उसमें मतदाताओं की चौड़े-धाड़े खरीद-फरोख्त! सतह और सतह से नीचे दोनों स्तरों पर। जिसे मानना हो माने कि ये रेवड़ियां, ये गारंटियां जनकल्याण हैं, विकास हैं लेकिन  असलियत में यह सब पिछले कुछ वर्षों में विकसित राजनीतिक जंगलीपने के कंपीटिशन में राष्ट्र-राज्य, संस्कृति, लोकतंत्र की बरबादी की रिकॉर्ड छलांग है।

मतदाता मानों बिकाऊ सस्ता माल! और रेट क्या? पांच किलो फ्री राशन, साल में दस या बारह हजार रुपए नकदी, दो-तीन सौ यूनिट फ्री बिजली जैसी गारंटियां! जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के विश्व शक्ति होने, दुनिया की तीसरी-चौथी इकोनॉमी बनने जैसे हुंकारे मारते हुए थकते नहीं हैं, और वे चुनाव में नागरिकों से किस रेट पर वोट चाह रहे हैं? पांच किलो अनाज पर। नरेंद्र मोदी की एक रेट, एक गारंटी, एक पैकेज तो उनके कंपीटिशन में राहुल गांधी की सौ-दो सौ रुपए ऊपर-नीचे की रेट, जबकि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी रेट अलग तरह की!

मंच पर से गारंटी देती रेट नंबर एक में हैं। वही नंबर दो की असल खरीद रेट शराब और नकदी से है। इसके बंटने और वोट खरीदने की मौजूदा हकीकत की गहराई में जितना जाएंगे दिमाग चकरा जाएगा। मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में मतदान हो चुका है और उस दौरान संघ परिवार की मूल प्रयोगशाला वाले संयुक्त मध्य प्रदेश क्षेत्र में चुनाव 2023 में जो हुआ है वह अकल्पनीय है। किसी विधानसभा क्षेत्र (सिर्फ एक विधानसभा क्षेत्र) में सौ करोड़ रुपए खर्च होने की अपने स्वंयसेवकों की जुबानी बातें हैं तो कहीं 60 करोड़ रुपए तो कही 40 या 25 करोड़ रुपए प्रति उम्मीदवार खर्च के चरचे-चरखे हैं। प्रति परिवार घरों के वोट के लिए दस हजार रुपए बंटवाने तक की चर्चाएं हैं। दक्षिण भारत के रिकॉर्ड तोड़ खर्च भी संभवतया मध्य प्रदेश में फीके हो गए होंगे। संदेह नहीं खर्च की बाते अतिशयोक्ति भरी हुआ करती हैं। तिल का ताड़ भी बनता है। मगर यदि संघ परिवार के खांटी स्वंयसेवकों व वरिष्ठ पदाधिकारियों की बैठकों में आत्मग्लानि वाले इन वाक्यों की फीडबैक है कि भाई साहब अब हमें ट्रकों से शराब भी बंटवानी पड़ेगी तो इतना सुन कर ही दिमाग क्या नहीं भन्नाना चाहिए?

मध्य प्रदेश में कैसे चुनाव लड़ा गया? मानो नहीं जीते तो खत्म हो जाएंगे! सौम्य दिखने वाले नरेंद्र सिंह तोमर हों या भूपेंद्र सिंह, नरोत्तम मिश्र, संजय पाठक आदि तमाम भाजपा दिग्गजों के विधानसभा इलाकों की ग्राउंड रियलिटी भयावह है। बिहार में लालू यादव के दिनों होने वाले चुनावों की यादें ताजा हो गई हैं। पर इतना खर्चा और शराब बंटना तो तब भी नहीं था। क्या इसी के लिए शिवराज सिंह चौहान और भाजपा के 18 वर्षों के राज को याद रखें? चाल-चेहरे-चरित्र के थोड़े बहुत बचे आग्रही स्वंयसेवकों पर क्या गुजर रही होगी? कैसे हम थे और क्या बने? इतने भूखे!

मैंने मध्य प्रदेश को जनसंघ-भाजपा की पहली प्रयोगशाला बनते और कमल खिलते देखा है। मैं विधानसभा चुनाव 1985 में मध्य प्रदेश में पहली बार घूमा था। तब भाजपा कुशाभाऊ ठाकरे, कैलाश जोशी, सुंदरलाल पटवा, वाजपेयी-आडवाणी की पार्टी थी। मैं अपने घूमने-देखने के शगल में भोपाल संवाददाता महेश पांडे को लेकर 1985 में मध्य भारत के कैलाश जोशी के विधानसभा क्षेत्र बागली कस्बे से लेकर बस्तर में जगदलपुर तक गया था। कैलाश जोशी को प्रचार करते देखा तो मुरीद हुआ। क्या ईमानदारी व कैसा सरल और सहज जनसंपर्क। खरसिया की तरफ लखीराम अग्रवाल और तब नए-नए उभरे जसपुर के जूदेव के साथ भी घूमा। ये सब नेता तब लगभग एक खटारा एबेंसेडर से चुनाव लड़ते थे। सड़कों, गलियों में पैदल घूमते थे। ठाकरे, जोशी, पटवा में कोई भी काफिले, शराब, पैसे के बूते राजनीति की पार्टी में कल्पना भी नहीं कर सकते थे। भाजपाई-संघ कार्यकर्ताओं-परिवारों का चाल, चेहरा, चरित्र तब निराला था। तभी मैं और ‘जनसत्ता’ के रिपोर्टर अर्जुन सिंह के चुरहट और उनके भ्रष्ट, मनमाने राज की बातों में मानते थे कि भले लोगों के मध्य प्रदेश में यह कैसी सामंतशाही और भ्रष्टाचार है!

और सन् 2023 का मध्य प्रदेश? शिवराज सिंह चौहान के राज की कुल जमा उपलब्धि? संघ परिवार और भाजपा के चाल, चेहरे चरित्र के पोर-पोर में हर तरह की भ्रष्टताओं में यह रत्ती भर भी यह नहीं माना जा सकता है कि यह ठाकरे-जोशी की पार्टी है? भरपूर सत्ता भोगने के बाद भी रत्ती भर का संतोष नहीं।

बागली में कैलाश जोशी, नीमच-जावद में सुंदरलाल पटवा के प्रचार में कभी यह नहीं सुना होगा कि लाड़लियों मैंने तुम्हें पैसा पहुंचाया तुम मुझे वोट दो! हम तुम्हें पैसा देंगे। रेवड़ी देंगे। खैरात बांटेंगे। उलटे लोग उन्हें खुद चंदा देते थे। कार्यकर्ता और वोटर अपनी जेब से पैसा खर्च करके विचार और विचारधारा के प्रतीक चेहरों को चुनाव लड़वाते थे। न उनमें पैसे की भूख थी और न सत्ता की। दीनदयाल उपाध्याय, ठाकरे, भंडारी, जगन्नाथ राव जोशी, वाजपेयी, आडवाणी, कैलाश जोशी, पटवा याकि भाजपा की पूरी लीडरशीप और भाऊराव, राजेंद्र सिंह से लेकर सुदर्शन तक संघ के तमाम प्रमुख यह तनिक भी बरदाश्त नहीं करते थे कि पैसे और शराब से लोगों को खरीदा जाए। हर हाल में चुनाव जीतेंगे।

जबकि अब मोदी-शाह से ले कर संघ के भागवत-सुरेश सोनी व प्रदेश के शिवराज सिंह चौहान के चेहरे-चाल-चरित्र में कैसा हिंदू मध्य प्रदेश बना हुआ?

मैं सचमुच हैरान हूं कि भला क्यों किसी भी कीमत पर सत्ता पाने की यह भूख?

अनेक कारण हैं। सर्वोपरि वजह मोदी-शाह का हर तरह से, हर स्तर पर यह जहर बो देना है कि सत्ता है तभी सुरक्षा है। सत्ता के बिना न मोदी-शाह-शिवराज आदि कोई सुरक्षित होंगे और न हिंदू! भोपाल के एक महा पॉवरफुल से जब मैंने पूछा- शराब-पैसा बांटकर, बूथों पर कब्जे, दलबदल आदि एक्स्ट्रीम में भी सत्ता की इतनी जिद्द! भला क्यों? तो पहला तर्क था – वे भी (कांग्रेस) ऐसा करते हैं!

आखिरी तर्क था– सत्ता जरूरी है ताकि मुसलमान सिर पर आ कर न बैठें।

सोचें, इस बुद्धि पर! हिंदू भले पियक्कड़ शराबी बने, मुफ्तखोर, कामचोर, भ्रष्ट और चाल-चेहरे-चरित्र के नैतिक मूल्यों को भूलते-छोड़ते ठूंठ हो जाए लेकिन चुनाव येन-केन प्रकारेण जीतना है ताकि मुसलमान से बचे रहें!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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