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नेता बेवकूफ हैं या जनता?

मोदी राज ने 140 करोड़ लोगों में हिंदुओं की उस आबादी को मूर्ख बनाया है जो धर्मपरायण और मूर्ति दर्शन, भजन, सत्संग, कथा-कहानी की पीढ़ीगत आस्था में जिंदगी गुजारती आई है! इन सबके दिल-दिमाग में अपने को पैठा कर वह कंपीटिशन पैदा कराया है, जिससे राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल याकि गैर-भाजपाई पार्टियों की मजबूरी है जो वे भी लोगों को बेवकूफ बनाने, अंधविश्वासी बनाने के काम करें। तभी चुनाव अब बेवकूफ बनाने का उत्सव है। इस सप्ताह ‘पनौती’ जुमले का जैसा देशव्यापी हल्ला बना वह लोगों की समझ और अंधविश्वासों का पीक है। इससे क्या साबित है? नेता और मतदाता दोनों भूल गए हैं कि विकास क्या होता है, कैसे होता है? और चुनाव परिवार-प्रदेश-देश की प्रगति के विकल्पों में चुनने का मौका होता है न कि खैरात में कौन कम या ज्यादा पैसा बांट रहा है? या मोदी ‘पनौती’ हैं या राहुल?

चुनाव दौरान मैं छतीसगढ़ गया। फिर जयपुर आ कर बैठा। ‘नया इंडिया’ से श्रुति ने छतीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान तीनों प्रदेश घूमे हैं? सवाल है सभी प्रदेशों में लोगों से बातचीत का निचोड़ क्या है? एक- महंगाई लोगों में मुद्दा ही नहीं है। केवल छतीसगढ़ में किसान और गरीब लोग यह रोना रोते मिले कि शराब महंगी हो रही है और घटिया मिल रही है। आटे-दाल, प्याज, तेल जैसी आवश्यक वस्तुओं की या घर के खर्च में मुश्किल जैसी बात करता कोई नहीं मिला। इसका अर्थ है कि गरीब भी महंगाई को ले कर बेफिक्र है। दो- बेरोजगारी भी मसला नहीं है। नौजवानों की भीड़ में बेरोजगारी का गुस्सा रत्ती भर नहीं है। इसलिए क्योंकि देहात और कस्बों में फोन, सोशल मीडिया और बेगारी वाले कामों ने नौजवान में जहां टाइमपास वाली व्यस्तता बनाई है वही दिमाग में यह भी पैठा दिया है कि सीएम या पीएम सब तो बांट रहे हैं, इलाज करा रहे हैं, राशन दे रहे हैं, खाते में पैसा पहुंचा रहे हैं और रेवड़ियों की योजना दर योजना की गारंटी देते हुए हैं तो ठीक ही है। इस मनोवैज्ञानिक संतुष्टि के साथ मोदी के चेहरे से पांच हजार रु महीना कमाने वाला यूथ यह मानता है कि मोदीजी से दुनिया में भारत का नाम रोशन है। उनके कारण भारत अब अमेरिका, ब्रिटेन आदि के संग कंधे से कंधा मिला कर चल रहा है। तीन- दिमाग में विकास की समझ ही नहीं रही या बदल गई है। लोगों में विकास की धारणा में खेती के लिए बांध, चौबीस घंटे बिजली, रोजगार के लिए कारखाने, अस्पताल व स्कूल बनें और रियल पढ़ाई या सही इलाज हो, जैसा कोई विकास बोध नहीं है।

मतलब मोदी राज से अच्छे दिनों, खाते में पैसा पहुंचाने आदि से बेवकूफ बनाने का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह घर-घर लोगों में दिमाग को बदले हुए है। मोदी की देखा-देखी में पहले अरविंद केजरीवाल ने और अब राहुल गांधी व कांग्रेस ने उत्तर भारत के प्रदेशों में पैसा व चीजे बांटने का तमिलनाडु मॉडल घरों में जो पहुंचाया है उससे भी उत्तर भारत में लोगों का दिमाग परिवर्तन पुख्ता होते हुए है। यह दक्षिणी राज्यों से ज्यादा इसलिए गंभीर है क्योंकि जात पांत और गोबर पट्टी के पुराने अंधविश्वास अलग से बैकग्राउंड में हैं।

विषयांतर में विश्लेषण होने लगा है। पते का दो टूक सत्य उत्तर भारत के सभी नेता, सभी पार्टियां जहां खुद बेवकूफी में विकास के सही अर्थों से अनजान हैं वही चुनाव लड़ने के लिए यह आसान तरीका भी है। फिर सत्ता में रहते हुए शराब, पेट्रोलियम पदार्थों से मनमानी वसूली करके उससे हजार-दो हजार रुपए की खैरात बांटने कर गर्वनेंस और भ्रष्टाचार भी आसान है। तभी  मोदी हों या केजरीवाल, नीतीश कुमार या कांग्रेसी मुख्यमंत्री सभी के बांटने के पैकेज तरीके एक जैसे बन गए हैं। हर जगह चुनावी पैटर्न और इकोसिस्टम एक जैसा।

सोचें, ऐसे लोकतंत्र और विकास के नाम पर रेवड़ियों तथा ‘पनौती’     जैसी जुमलेबाजी में रचे-पके इकोसिस्टम से दस साल बाद क्या होगा 150 करोड़ लोगों का? वे विकसित कहलाएंगे या ‘पनौती’ के मारे लोग!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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