nayaindia five state assembly election लाख टके का सवाल लड़ना कैसे है?

लाख टके का सवाल लड़ना कैसे है?

उत्तर भारत के तीन राज्यों के चुनाव नतीजे विपक्ष के लिए चेतावनी की घंटी है। चाहे बिहार में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार हों या उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव हों। सब यह मान कर बैठे थे कि उनको भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति की काट मिल गई है। सब मान रहे थे कि जाति गणना, सामाजिक न्याय और आरक्षण बढ़ाने का मुद्दा इतना बड़ा है कि अब कुछ और सोचने की जरूरत नहीं है। मई में कर्नाटक के नतीजों की कांग्रेस ने भी इसी अंदाज में व्याख्या की। सिर्फ कांग्रेस नहीं तमिलनाडु में सरकार चला रही डीएमके को भी लगा कि जिस तरह ‘अहिंदा’ समीकरण और बजरंग दल का विरोध करके कर्नाटक में कांग्रेस भाजपा को हरा कर जीत गई उसी तरह तमिलनाडु में भी सनातन विरोध का झंडा बुलंद कर देंगे तो भाजपा को हरा देंगे। तीसरी बात विपक्षी पार्टियों को यह समझ में आ रही थी कि पुरानी पेंशन योजना की घोषणा कर देंगे और मुफ्त की वस्तुएं व सेवाएं बांट देंगे तो चुनाव जीत लेंगे। चौथी बात, विपक्षी नेता समझ रहे थे कि उनके खिलाफ सीबीआई और ईडी की कार्रवाई होने से लोगों में सहानुभूति बनेगी। लेकिन ये सारे अनुमान और सोच गलत साबित हुए हैं।

जाति गिनती का एजेंडा नहीं चला है और न आरक्षण बढ़ाने की बात लोगों के दिमाग में बैठी। पुरानी पेंशन योजना की घोषणा से सरकारी कर्मचारियों के कुछ वोट जरूर कांग्रेस को मिले लेकिन आम जनता के बीच यह मुद्दा क्लिक नहीं हुआ। मुफ्त की चीजें बांटने की घोषणा भी काम नहीं आई क्योंकि भाजपा भी इसकी घोषणा कर रही है। तभी अब विपक्षी पार्टियों को इन नतीजों से झटका तो लगा है लेकिन साथ ही यह भी मैसेज है कि वे मिल कर लड़ने के बारे में सोच सकते हैं। नए एजेंडे पर विचार कर सकते हैं। अपने मुद्दे क्या होंगे, यह सोचना होगा और साथ ही यह भी सोचना होगा कि भाजपा क्या मुद्दा ला सकती है। जिस तरह से कश्मीर में कश्मीरी पंडितों और विस्थापितों के लिए सीट आरक्षित करने वाले विधेयक पर चर्चा के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पाक अधिकृत कश्मीर का मुद्दा उठाया और कहा कि पीओके हमारा है। उससे विपक्ष को सावधान होना चाहिए। संभव है भाजपा राष्ट्रवाद का नया मुद्दा उठाए।

सो, कह सकते हैं कि तीन राज्यों के चुनाव नतीजों से विपक्ष को नींद से जगा दिया है। विपक्षी पार्टियों को अब समझ में आ गया होगा कि भाजपा से लड़ना बहुत आसान नहीं है। सीबीआई और ईडी के छापों की मार से बेहाल विपक्ष बेचारा बन कर सहानुभूति नहीं हासिल कर सकता है और न भाजपा के खिलाफ भ्रष्टाचार का मुद्दा बनाना काम आया। उलटे भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रचार ने समूचे विपक्ष के बारे में यह धारणा बना दी है कि वह भ्रष्ट है। केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाइयों की वजह से सहानुभूति बटोरने की कोशिश कहीं न कहीं पंक्चर हो जा रही है। जैसे अभी झारखंड से कांग्रेस के राज्यसभा सांसद धीरज साहू और उनके परिवार से जुड़ी कंपनियों पर आयकर का छापा पड़ा तो दो सौ करोड़ रुपए से ज्यादा की नकदी पकड़ी गई। भले मामला कारोबारी हो लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने खुद ट्विट करके इस बारे में बताया कि कैसे विपक्ष की पार्टी के एक नेता लूट कर पैसा जमा किए हुए हैं। उन्होंने कहा कि जनता से लूटी गई पाई पाई वसूली जाएगी।

असल में पांच राज्यों के चुनाव में उन तमाम मुद्दों की परीक्षा होनी थी, जिनके दम पर लोकसभा का चुनाव लड़ा जा सकता है। विपक्ष के नजरिए से देखें तो सारे मुद्दे बहुत कमजोर साबित हुए हैं। सिर्फ एक चीज है, जो विपक्ष के लिए अच्छी हुई है वह ये है कि इससे एकजुट होकर लड़ने की जरूरत प्रमाणित है। कम से कम राजस्थान में अगर पूरा विपक्ष एक होकर लड़ा होता तो कांग्रेस जीत जाती। भाजपा और कांग्रेस के वोट में सिर्फ दो फीसदी का अंतर था। भाजपा को दो फीसदी वोट ज्यादा मिले थे। कुल 44 सीटें ऐसी थीं, जहां अन्य या निर्दलीय उम्मीदवारों को मिला वोट जीत-हार के अंतर से ज्यादा था। एक आकलन के मुताबिक अगर इन सीटों पर विपक्ष या भाजपा विरोधी पार्टियां एक होकर लड़ी होतीं तो कम से कम 30 अतिरिक्त सीटें कांग्रेस जीत सकती थी। यानी उसे पिछली बार जितनी सीटें मिल सकती थीं। लेकिन कांग्रेस ने न हनुमान बेनिवाल की पार्टी से बात की, न सपा, बसपा और आप से बात की और न भारतीय आदिवासी पार्टी से बात की। अगर इन पार्टियों को कुछ सीटें देकर कांग्रेस ने तालमेल किया होता तो राजस्थान की तस्वीर अलग होती।

मध्य प्रदेश में तो कांग्रेस बहुत ज्यादा वोट के अंतर से हारी है लेकिन छत्तीसगढ़ में कांग्रेस टक्कर दे सकती थी या जीत सकती थी। वहां भी बसपा, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के उम्मीदवारों को ठीक ठाक वोट मिले हैं। सो, पांच राज्यों के चुनाव नतीजों में विपक्ष के सामने यह स्पष्ट हो गया है कि एकजुट होकर भाजपा के हर उम्मीदवार के खिलाफ एक उम्मीदवार उतारने की जो पुरानी योजना है, जिसके लिए विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का गठन हुआ है उस पर अमल किए बिना काम नहीं चलेगा। कांग्रेस और विपक्ष की बाकी सभी पार्टियों के सामने भी यह जरुरत प्रमाणित हो गई है। सो, कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के लिए दो सबक हैं। पहला तो यह है कि मुद्दों को धार देनी होगी। अगर लोकसभा चुनाव में उन्हीं मुद्दों पर लड़ना है, जिन पर पांच राज्यों में विपक्ष ने चुनाव लड़ा है तो वह पर्याप्त नहीं है। दूसरा सबक यह है कि एकजुट होकर हर सीट पर एक विपक्षी उम्मीदवार उतारना होगा।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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