भारत में हमेशा मतदाताओं को कई समूह रहे हैं। अलग अलग पार्टियां अलग अलग समूहों को टारगेट करती हैं। अल्पसंख्यक मतदाताओं का एक बड़ा समूह है, जिसके तुष्टिकरण का आरोप लगा कर भाजपा ने कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया। हिंदुत्व का एक मतदाता समूह है, जो पहले भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी, शिव सेना आदि पार्टियों के साथ रहता है। पिछड़ी जातियों का एक समूह है, जो मंडल की राजनीति के बाद प्रादेशिक समाजवादी पार्टियों के साथ रहता है तो दलित जातियों का एक मतदाता समूह है, जो पहले कांग्रेस के साथ जाता था और फिर उसकी क्षमता को समझ कर कांशीराम व मायावती ने बहुजन समाज पार्टी बनाई, जिसके साथ जाने लगा। आदिवासी मतदाता समूह अलग है तो राज्यों में कहीं जाट, कहीं मराठा, कहीं रेड्डी, कहीं लिंगायत तो कहीं वोक्कालिगा का मतदाता समूह है। लेकिन अब लाभार्थी मतदाताओं का एक समूह बन गया है।
ऊपर बताए गए सभी समूहों में लाभार्थी मतदाता हैं। गरीब भी और मध्य वर्ग के लोग भी लाभार्थियों की सूची में आते हैं। देश की 90 फीसदी आबादी को कोई न कोई छोटा–मोटा लाभ मिल रहा है। 10 फीसदी के अंदर दो–तीन फीसदी का एक समूह ऐसा है, जिसे इन घोषित लाभों में से कुछ नहीं मिलता है लेकिन देश के संसाधनों के बड़े हिस्से पर उसका नियंत्रण होता है। बहरहाल, देश की एक बड़ी आबादी ऐसी है, जिसे पार्टियों की ओर से दी गई सारी गारंटियों के लाभ मिल रहे हैं। सोचें, तब फिर उसे कोई भी काम करने की क्या जरूरत है? आज अगर कोई परिवार चाहे तो बिना कोई काम किए आराम से गुजर–बसर कर सकता है। लेकिन वह सिर्फ गुजर–बसर होगी। न तो उसका जीवन स्तर सुधरेगा और न देश का स्तर सुधरेगा।
कल्पना करें किसी परिवार को सारी गारंटियों का पूरा लाभ मिले तो क्या तस्वीर बनेगी? अगर पांच लोगों का परिवार है तो उसे 25 किलो अनाज पूरी तरह मुफ्त में मिलेगा। राज्य सरकारें भी इसी अनुपात में मुफ्त में अनाज देती हैं। इसका मतलब है कि पांच आदमी के परिवार को 50 किलो अनाज मिल जाएगा। कई राज्यों में तेल, दाल और नमक भी दिए जाते हैं, खासकर चुनावों के समय। हालांकि जरूरी नहीं है कि वह इस अनाज से खाना बना कर खाए। क्योंकि कहीं अम्मा रसोई है तो कहीं इंदिरा रसोई है, जहां पांच रुपए, 10 रुपए में खाना मिल रहा है। अगर वह खाना बना कर खा भी रहा है तब भी उसके पास काफी मात्रा में अनाज बच जाता है। सो, कच्चे अनाज का बड़ा हिस्सा खुले बाजार में बिकने के लिए पहुंच जाता है।
अगर परिवार में दो वयस्क महिलाएं हैं तो ढाई से तीन हजार रुपए नकद खाते में आ जाएंगे। अगर दो लोग किसान के तौर पर रजिस्टर्ड हैं तो एक हजार रुपया उसका महीना आ जाएगा। अगर एक बुजुर्ग सदस्य है तो उसे वृद्धावस्था का और अगर कोई बेरोजगार है तो उसे बेरोजगारी भत्ता के नाम पर भी कुछ पैसे मिल जाते हैं। बच्चा स्कूल जाता है तो उसे पढ़ाई के साथ साथ पोशाक और खाना मुफ्त में मिलता है और हर साल कुछ पैसे भी मिलते हैं। अगर मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बन जाए तो नर्सरी से ही बच्चों को हर महीने नकद पैसे मिलने लगेंगे। घर में मुफ्त में बिजली आ रही है और उज्ज्वला योजना के तहत रसोई गैस कनेक्शन मिला हुआ है तो बहुत मामूली कीमत पर सिलेंडर भी मिल रहा है। इलाज के लिए हर राज्य ने बीमा सेवा शुरू कर रखी है, जिससे जो लोग सरकारी अस्पताल में इलाज नहीं कराते वे निजी अस्पतालों में मुफ्त इलाज करा लेते हैं। कई जगह अस्पतालों और बीमा कंपनियों की मिलीभगत से जो खेल चल रहा है वह अलग है।
सस्ते कर्ज की मुद्रा योजना, विश्वकर्मा योजना, छात्र क्रेडिट कार्ड योजना से पैसे लेकर उसका इस्तेमाल अलग हो रहा है। कहीं शौचालय बनाने का पैसा आ गया तो कहीं प्रधानमंत्री आवास योजना में पैसा आ गया। शौचालय और आवास की योजना में पंचायतों में प्रमुखों के साथ मिल कर पैसे का जैसा बंदरबांट होता है उसका हिसाब नहीं है। इसी तरह मनरेगा की योजनाओं में होता है। मुखिया और लाभार्थी की साझा समझदारी से जियो और जीने दो का खेल चलता है। कुल मिला कर एक परिवार को खाने की जरुरत से ज्यादा अनाज और पांच से आठ–दस हजार रुपए तक महीना मिल जाता है या अगले कुछ दिनों में मिलने लगेगा। इस समूह में बड़ी आबादी ऐसी है, जिसके पास कोई काम नहीं है और न उसे कोई काम करने की जरूरत महसूस होती है। सोचें, इजराइली बौद्धिक युवाल नोवा हरारी और अमेरिकी कारोबारी इलॉन मस्क कह रहे हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की वजह से दुनिया की बड़ी आबादी बेमतलब हो जाएगी। उसके पास कोई काम नहीं होगा। लेकिन भारत में तो उससे पहले ही करोड़ों लोग उस दशा में पहुंच गए हैं! बेगारी दिमाग के बेगारी करोड़ों लोग!