अगस्त 1947 से फरवरी 2024 का भारत सतत झूठ में जीता आया है। आगे भी वह झूठ में जीता रहेगा। वजह सत्ता के शिखर की गंगौत्री से धारा के अंतिम छोर तक की प्रजा का झूठ की स्वीकार्यता में जीना है। हम भारतीयों में झूठ के कई रंग है। कई प्रकार है। कई रूप है। उसकी कई लीलाएं है। मेरा यह सत्य दिमाग को झनझना देने वाला होगा, अतिवादी लगेगा लेकिन गौर करें 14-15 अगस्त 1947 को आजाद हुए पाकिस्तान और भारत के सफर पर। इन दोनों देशों के जन्म, उसकी सरंचना, उदेश्यों में मोहम्मद अली जिन्ना (मुस्लिम लीग) बनाम गांधी-नेहरू (कांग्रेस) में कौन सच्चाई लिए हुए था और कौन झूठ? जवाब है पाकिस्तान। क्योंकि सत्य धर्म और इस्लाम था। तब से आज तक वह इस्लामी है। लोग और देश दोनों की एक आस्था। एक रंग, एक उद्देश्य, एक सत्य और उसी पर राजधर्म, तंत्र तथा देश एकता!
निश्चित ही इसके परिणाम में पाकिस्तान ने बहुत कुछ भोगा है और भोगता हुआ है। लेकिन देश में, आबादी में, राजनीति में धर्म का विग्रह, विभाजन तो नहीं है। नेता और सत्ता के प्रति अंधभक्ति में तमाम प्रकार के झूठे प्रयोग तो नहीं है। ठिक विपरित आजादी से आज तक भारत में क्या हुआ है? नेहरू और कांग्रेस का सत्ता- सेकुलर पक्ष 1947 से लेकर आज तक बहुसंख्यक हिंदू आबादी के सत्य, उसकी भावनाओं पर सेकुलर, समाजवाद का झूठ थौंपता आया है। हकीकत, इतिहास का नकारा। तभी रामराज्य परिषद् के करपात्री, संघ-जनसंघ के नेताओं से लेकर सावरकर तक को झूठा बताया जाता रहा। नई पीढ़ी इस हकीकत का अनुमान भी नहीं लगा सकती है कि 1975 से पहले हिंदू आईडिया ऑफ इंडिया वाले नेता-लोग कैसी अछूत सार्वजनिक जिंदगी जीते थे। मतदाताओं को तमाम तरह के कानफोडू प्रोपेगंडा से, सरकारी तंत्र के सफेद झूठों से वैसे ही बहकाया जाता था जैसे इन दिनों मोदी राज में कांग्रेस-सेकुलरों-वामपंथियों-विरोधियों के खिलाफ सफेद झूठों का सैलाब है।
हां, तब और अब के समय फर्क से मिजाज में जरूर यह भेद है जो तब नेहरू, शास्त्री, इंदिरा से ले कर राजीव गांधी, नरसिंहराव सौम्य राजनेता थे, सरल सहज हिंदू थे। वे नैतिक आदर्शवादी-मूल्यों के लिहाजी थे। तो हिंदूवादी करपात्री से लेकर अटलबिहारी वाजपेयी भी वक्त की तासीर अनुसार व्यवहार, स्वभाव, संवाद, संबंधों में सत्ता के प्रति सौम्यता रखते थे। दोनों तरफ के सफेद-काले झूठ में अंहकार, जीना दुश्मनी नहीं थी। एक दूसरे को देख लेने, तलवार लटकाने या जेल भेजने का जंगलीपना नहीं था। बावजूद इसके झूठ की गंगा तो थी। आखिर नेहरू-सरदार पटेल ने झूठे ही आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया था। हिंदूवादी नेताओं (सावरकर को भी) जेल में डाला था। विशेषकर इंदिरा गांधी के समय वामपंथियों के लाल रंग से बात-बेबात लगातार जनसंघ-संघ-विपक्ष सबको देश की एकता-सुरक्षा, धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरनाक बताया जाता था। उन परविदेशी ताकतों, सीआईए के एजेंट से लेकर दंगाई होने के आरोप लगते थे। ताकि नैरेटिव के असर में जनता माने रहे कि न अटलबिहारी वाजपेयी विकल्प लायक है और न आडवाणी या नरेंद्र मोदी। याद करें नरेंद्र मोदी को मौत के सौदागर से लेकर सफेद- काली दाढी में तिनकों के कैसे प्रायोजित नैरेटिव थे!
उस इतिहास की पुनरावृति में अब मोदी राज है। आज मोदी की सत्ता के सफेद झूठों के आगे विपक्ष व कांग्रेस के काले झूठ नकारखाने में तूती है और उन्हे जनता दो कौडी का माने हुए है।
कुल मिलाकर सफेद झूठ/काला झूठ भारत का राजधर्म है। भारत की नियति है। इसमें सत्ता हमेशा घोषणाओं, व्हाईट पेपरों से झूठ बोलती है वहीं विपक्ष ब्लैक पेपर, ब्लैक पट्टी, काले दिन, काले राज जैसी बातों से कर झूठ बोलता है।
सवाल है झूठ में किसकी महिमा ज्यादा? सफेद की या काले की? मुझे लगता है हम हिंदू क्योंकि झूठ के कलियुग में रह रहे है इसलिए मोटा मोटी काले रंग, काले टोटकों के हम चहेते है। पर चलती सफेद झूठ की है। आखिर सत्ता का दम जो इसके पीछे होता है। दिल्ली सल्तनत की यह स्थाई हकीकत है जो उस पर बैठे सत्तावान की हमेशा सफेद झूठ में मास्टरी रही।इसलिए भी क्योंकि सत्ता और उसके बल में मीडिया, दरबारी, कोतवाल, एजैंसियां अपनी सामूहिक ताकत से सफेद झूठ को घर-घर पहुंचाने में समर्थ होती है। तभी यह लगभग नामुमकिन रहा जो सफेद झूठ का दमदार प्रधानमंत्री कभी हारा हो। दिक्कत उन्ही सरकारों, उन प्रधानमंत्रियों (मोरारजी देशाई, राजीव गांधी, पीवी नरसिंहराव, मनमोहनसिंह) को हुई है जो न भाषणबाज थे, न जुमलेबाज थे और न सफेद या काला झूठ गढ़ना- बोलना जानते थे। जान ले यह तथ्य किऊपर गिनाए, झूठे से ऊपर उठे भारत के चारों प्रधानमंत्री केवल संयोग से कुर्सी पर बैठे! और चारों न्यूनतम बोलने वाले थे। क्या मैं गलत हूं?