nayaindia Ram mandir inauguration नरेंद्र मोदी का सर्वकालिक क्षण!

नरेंद्र मोदी का सर्वकालिक क्षण!

अयोध्या की पांच अगस्त 2020 की तारीख और 22 जनवरी 2022 में क्या फर्क है? तब राम मंदिर निर्माण का भूमि पूजन था। आज मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा है। और संभव है दो-तीन साल बाद मंदिर के शिखर निर्माण पर कलश और ध्वज स्थापना का 5 अगस्त और 22 जनवरी से भी कई गुना अधिक भव्य आयोजन हो और तब वह क्या नरेंद्र मोदी का नंबर एक सर्वकालिक क्षणनहीं होगा?आखिर मंदिर की पूर्णता तभी है जब वह शिखर और ध्वजाधारी हो। धर्मशास्त्रों में लिखा हुआ हैं शिखर दर्शनम पाप नाशम। जितना प्रतिमा दर्शन से पुण्य मिलता है उतना ही शिखर दर्शन से होता है। कलश मंगल व पूर्णता का प्रतीक हैं और ध्वजा आस्था की पुण्यदायी पताका। धर्मशास्त्र व्याख्यों से जैन धर्मावलंबियों में मंदिर (जिनालय) की ध्वजा की मान्यता गजब है। हां, माना जाता है कि मंदिर में हो रही भक्ति-भजन-मंत्रोच्चारण,पूजा आदि की शब्द वर्गणा ऊपर की ओर ध्वजा से सर्वत्र हवाओं को स्पर्शित होकर व्याप्त होती है।वह हवा जहां-जहां जाती है, वहां-वहां का वातावरण शुद्ध, शांत, सात्विक, धार्मिक होता जाता है। इसलिए शिखर, उस पर कलश और ध्वजा के बिना मंदिर अपूर्ण है। मंदिर का शिखर है जो प्रकृतिसे विशुद्ध परमाणुओं को संग्रहीत कर मंदिर में नीचे पहुंचते हैं, जिससे मंदिर का वातावरण शुद्ध बना रहता है। धर्मशास्त्र की इन बातों की कसौटी में जाहिर है राममंदिर अभी अपूर्ण है। इस सत्य से सभी आस्थावान हिंदू, संघ, भाजपा और धर्माचार्य परिचित है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी होंगे। इसलिए तय माने प्रधानमंत्री मोदी अपने हाथों आगे शिखर, कलश और ध्वजारोहण का कार्यक्रम बनाए हुए होंगे। फिर आस्थावान हिंदू सिर्फ रामजी की मूर्ति के दर्शन के अभस्यत नहीं है। हमारे सभी परिवारों में पूजा पाठ राम-सीता और रामदरबार के फोटो से होता है तो अयोध्या और उसके केंद्रीय मंदिर में देरसबेर इसका आयोजन,निर्माण भी होना है।

तभी आज के सिलसिले में विचारणीय पहलू है कि अयोध्या में नरेंद्र मोदी के आज के दिन को उनका को सर्वकालिक क्षण माने? मेरे लिए यह मसला इसलिए है क्योंकि मैंने 5 अगस्त 2020 को राम मंदिर निर्माण के भूमि पूजन पर लिखा था- ‘नरेंद्र मोदी का सर्वकालिक क्षण!’

सो आप ही सोचे आज के दिन की तस्वीरों में,मेरे उस समय लिखे इन वाक्यों पर –

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच अगस्त 2020 को वह किया, जिसे हिंदू शायद ही कभी भुला पाएं। हिंदू मन कैसा भी हो, वह नरेंद्र मोदी के अयोध्या के फोटो शूट को कभी नहीं भुला पाएगा। उनके भाग्य में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का भूमि पूजन था, इसे शायद रामजी ने भी नहीं सोचा होगा। अब नरेंद्र मोदी भाग्य लिखा कर लाए हैं तो लाए हैं! किसी की किस्मत से कोई नहीं लड़ सकता है फिर भले वह कितना ही महाबली हो। मोदी के भाग्य के इन क्षणों को देखने से मैं अपने को नहीं रोक सका। मैं और मेरा दिमाग दसियों तरह से, दसियों साल अयोध्या व हिंदुओं पर सोचना रहा है लेकिन कल्पना नहीं थी कि नरेंद्र मोदी के हाथों, बतौर भारत के प्रधानमंत्री, मंदिर निर्माण का भूमि पूजन होगा। इसे क्या कहें? कैसी है हिंदुओं के भगवान, रामजी की लीला? नरेंद्र मोदी के भाग्य, उनके खाते में ही वह प्रारब्ध क्यों, जिसके लिए हिंदुओं ने सदियों आंसू बहाए। संघर्ष, उसके आंदोलन, आंदोलनों के चेहरों को भूलें मगर उस वेदना, उस पीड़ा, उस जलालत को याद करें, जिसकी टीस में हिंदू सदियों रोते रहे। मैं हिंदुओं को दुनिया का सर्वाधिक अभागा इसलिए मानता हूं क्योंकि धर्म, उसके जीने के सनातनी अंदाज की अक्षुण्णता रही लेकिन वह इतना आत्माभिमानी भी नहीं हुआ, जो अपने इष्ट के आदि स्थानों, आदि मंदिरों की रक्षा कर सके। धर्म, कौम, सभ्यता-संस्कृति और देश की मूर्तियों, इमाम-ए-हिंद के देवालयों में दीये जलाता रह सके!

क्या हैं शिव, क्या हैं राम और क्या हैं कृष्ण के फलसफे को भारत के राजे-रजवाड़ों, श्रेष्ठि हिंदूजनों ने, वक्त की हवा में बहने वाली उम्र ने नहीं समझा है और न ये अब भी समझे हुए हैं लेकिन उस इस्लाम और उसके बंदों ने जरूर समझा, जिनको समझते हुए सोमनाथ से ले कर अयोध्या के मंदिरों को बार-बार तोड़ने की जरूरत हुई। हिंदू या तो रोते-बिलखते रहे या तुलसी की अमूर्त साधना में रामायण की चौपाईयां पढ़ते रहे। उससे मन-मंदिर में प्राणवायु पाते रहे। लेकिन आक्रांताओं, हमलावरों, उनके दरबारियों, मुस्लिम शायरों को बार-बार लगातार अहसास होता रहा कि राम हिंद का सत्य हैं। जैसे ‘लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द’, तो ‘सब फ़ल्सफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे हिन्द’ और ‘है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़। इसलिए ‘अहल-ए-नज़र समझते हैं उस को इमाम-ए-हिंद’।

ऊपर की पंक्तियां पाकिस्तान की जरूरत में उसके दर्शन की शायरी करने वाले अल्लामा इकबाल की लिखी हुई हैं। सोचें, उन्होंने हिंदुस्तान की हकीकत में जो जाना हुआ था वह लिखा। वे जानते थे राम हिंद का सत्य, सत्य का प्याला, पूरब का चिंतक, हिंद के अस्तित्व की वजह हैं। शायद इस हकीकत की रूबरू में उनका बाद में ख्याल बना होगा कि राम जहां इमामे हिंद हैं उसमें मुसलमान कैसे रहेंगे!

मुद्दा ‘इमामे हिंद’ और ‘राम के वजूद पे उस हिन्दोस्तां का है, जिसका मन-मन, कण-कण यदि हजार साल के अनुभवों में घायल है और दर्द, पीड़ा, वेदना में जीवन जीता हुआ है तो वह उससे उबरने का प्रयास करे या नहीं? कई सुधीजन कहते हैं राम विचार हैं, राम मर्यादा हैं, राम जीवन दर्शन हैं तो हिंदू उनको जैसे पहले स्मरण करते हुए जी रहे थे, मर्यादा में रह रहे थे वैसे क्यों नहीं रह सकते? वैसे ही रहना चाहिए, क्या जरूरत है मंदिर की?  मस्जिद का ध्वंस करके मंदिर बनाने की? इकबाल जैसे इस्लाम के बंदे ने जब लिख दिया है कि कुछ भी हो जाए इनकी हस्ती मिट नहीं सकती और राम बने रहेंगे इमाम-ए-हिंद तो फिर मंदिर बने न बने क्या फर्क पड़ता है!

अब क्या कहा जाए! ऐसा सोचने वाले भूलते हैं कि इंसान और उसकी हर कौम धड़कता दिल लिए हुए है, वह इतिहास की स्मृतियां लिए हुए होती है। वह कैसे अपने मन की टीस, अपनी पीड़ा, वेदना से निरपेक्ष रहे? संभव ही नहीं। तभी दुनिया की हर समझदार, बुद्धिमना, हिम्मती कौम और देश ने वक्त बदलते ही इतिहास की गलतियों को सुधारा है। इतिहास के घावों को भरने वाले स्मारक बनाए हैं। वह न तो बदला लेना था, न बेहूदगी, मूर्खता है और न जंगलीपना या बहुसंख्यकवाद की दादागिरी।

सोचें, 15 अगस्त 1947 के बाद अयोध्या में बाबरी मस्जिद क्या थी? सिर्फ एक ढांचा। वहां न नमाज पढ़ी जाती थी और न आबाद थी।लेकिन पूरे इलाके, पूरे देश में वह उस जन्मस्थान के रूप में जाना जाता था, जिसे स्वतंत्रता के बाद उनहिंदुओं को पुनरूत्थान की उम्मीद थी। ऐसे ही सोमनाथ में क्या था, मंदिर विध्वंस के खंडहर। वाराणसी में खंडहर-मस्जिद की छाया में शिवमंदिर जिस अवस्था में था (मुझे ध्यान नहीं तब मथुरा में क्या स्थिति थी) उसमें हिंदू टीस अनुसार वहां क्यों नहीं मंदिर निर्माण होने चाहिए थे?  मंदिर विध्वंस के खंडहर बनवाए रख कर नई व्यवस्था ने सौहार्द बनवाई या भविष्य का अखाड़ा? पटेल-नेहरू ने समझदारी दिखाई जो सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। वैसा काम अयोध्या में भी हो सकता था। लेकिन नेहरू की, कांग्रेस की लापरवाही थी जो इमाम-ए-हिंद और उनकी अयोध्या की अनदेखी हुई और भविष्य के अखाड़े, राजनीतिकरण की संभावनाओं में उसे लावारिस रहने दिया। हालांकि तब कांग्रेस में भी गुपचुप टीस थी कि यह सब ठीक किया जाए। यदि फैजाबाद में एक आईसीएस अफसर ने बाबरी मस्जिद ढांचे के बीच रामलला की मूर्ति रखने दी और गोविंद वल्लभ पंत, नेहरू ने हटवाने की जिद्द नहीं की तो इसके पीछे इनके दिमाग में इतिहास और वक्त की हकीकत क्या जिम्मेवार वजह नहीं थी? मैं लगातार लिखता रहा हूं कि देश का बंटवारा हिंदू बनाम इस्लाम के धर्म आधार पर जब हुआ तो जो भारत बना वह बुनियादी तौर पर हिंदू आंकाक्षाओं को लिए हुआ था। वह गांधी के रामराज्य के लिए था, पंडित नेहरू की उन कल्पनाओं के लिए था, जिससे हिंदुओं को आधुनिक, गौरवपूर्ण, सुसंस्कृत बनाना था। हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए विचार यदि नहीं होता तो नेहरू-गांधी दोनों को मोहम्मद अली जिन्ना को प्रधानमंत्री मानने में भला क्यों ऐतराज होता!

मैं भटक गया हूं। मूल बात पर लौटें कि नरेंद्र मोदी का भाग्य है, जो वे सदियों के संघर्ष, हिंदुओं की टीस और असंख्य-लाखों लाख लोगों के प्रण, संकल्प, इच्छा के प्रतीक के तौर पर पांच अगस्त 2020 को अयोध्या में भूमिपूजा के अधिष्ठाता, यजमान बने। ऐसा होना उनके प्रधानमंत्री होने से है। यह हिंदुओं का गौरव है तो हिंदुओं की उपलब्धि है। भाग्य है उनका जो पांच अगस्त 2020 के दिन उनका वह इतिहासजन्य फोटोशूट हुआ, जिसे आम हिंदू शायद ही कभी भुला पाए। ऐसा श्रेय राजीव गांधी भी ताला खुलवाने और उसके बाद जन्मस्थान पर शिलान्यास कराने के फैसले में खुद ले सकते थे। पीवी नरसिंह राव बाबरी मस्जिद के ध्वंस और अस्थायी मंदिर के निर्माण के तुंरत बाद अयोध्या जा कर दर्शन के साथ ले सकते थे। लेकिन पंत-नेहरू, राजीव गांधी-अरूण नेहरू, पीवी नरसिंह राव और उनके बाद वाजपेयी-आडवाणी ने मौका इसलिए चूका क्योंकि सब इस दुविधा में रहे कि संविधान की मर्यादा में हम कैसे अमर्यादित काम करें? पीवी नरसिंह राव के दिल-दिमाग दोनों में ‘राम के वजूद पे हिन्दोस्तां’  का सत्य था तभी ध्वंस के बाद अस्थायी मंदिर बनने दिया, लेकिन संविधान की मर्यादा में उन्होंने मामले को कोर्ट में रेफर कर फैसला भविष्य के सुपुर्द किया। यदि वे ताबड़तोड़ अयोध्या जा कर राम के वजूद पर सार्वजनिक ठप्पा लगा देते तो समकालीन इतिहास कुछ और होता।

कह सकते हैं मर्यादा पुरूष का मंदिर यदि मर्यादा से नहीं बना, यदि मर्यादा पुरूष के हाथों उसका भूमि पूजन नहीं हुआ और संस्थाओं के दुरूपयोग, बेशर्म राजनीतिक एजेंडे में, वोटों की जरूरत में मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हुई तो राम आशीर्वाद देंगे या श्राप? देश और देश के संविधान मंदिर का तब क्या होगा? अपना एक ही तर्क है और वह यह है कि जिस कौम का अस्तित्व सनातन है, जिसके इमाम-ए-हिंद आदि काल से जन-जन में रचे-बसे हुए हैं उन्हें भी यदि संविधान- किताब का मोहताज रहना हुआ तो न देश बन सकता है और न लोग बन सकते हैं। मर्यादा इस बात में है कि वक्त और वक्त की तासीर में यह नहीं भूला जाए कि जो सच है उसे स्वीकारें।

सोबधाई नरेंद्र मोदी को, जो पांच अगस्त 2020 के दिन सदा याद रखा जाने वाला, उनका इतिहाजन्य फोटोशूट हुआ! उनकी टीम द्वारा सोचा, रचा सेट संयोजन, कलर थीम, वस्त्र धारण, लाईट, कैमरा, स्क्रीप्टींग सब हिंदुओं के लिए सौ टका मनभावन! (6 अगस्त 2020)

और वह सब आज 21 जनवरी 2022 के दिन क्या सत्य नहीं है? भविष्य के शिखर-ध्वजारोहण के समय नहीं होगा?…. इस सबका क्या अर्थ निकाले?

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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