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‘परेशानी’ (नलों में सीवरेज पानी) का अमृतकाल!

“परेशानी” कहे या ‘असुविधा’,  यह शब्द हम भारतीयों के रोजाना का अनुभव है। हर व्यक्ति, हर घर, हर गली का स्थाई सच। भारत के लोगों के जीवन का ढंग है। और यह आम इसलिए है क्योंकि हम उस व्यवस्था, सिस्टम, उस तंत्र को सामान्य मानकर बड़े हुए हैं जिसमें शासन-प्रशासन नागरिक को तंग न करें तो वह अपने सिस्टम की सफलता ही न माने। सो जब भी असुविधा हुई तो कंधे उचकाकर झेलते है, और जुगाड़ से रास्ता निकाल कर आगे बढ़ जाते है। सड़क के गड्ढे भले टायर निगल जाएं, कूड़े का ढेर फुटपाथ और सड़क पर फैल जाए, गर्मियों की दोपहर में बिजली पंखा रोक दे तो दिमाग में हलचल कतई नहीं होगी। गुस्से का तो खैर सवाल ही नहीं बल्कि बस एक ठंडी आह निकलती है इसलिए क्योंकि भारत तो ऐसा है। जिंदगी तो ऐसी ही जीनी होगी।  

कोई इसे हमारी सहनशीलता कहता है, कोई इसे “भारत की खूबसूरती” कि भारतीय हर परेशानी, मुश्किल से मुंह मोड कर जी लेता हैं। सच्चाई है कि हमने पतन को दिल-दिमाग में स्वीकार लिया है। हम जी रहे हैं “असुविधा की सुविधा” में। शासन की नाकामी को नागरिक अपने जुगाड़ से ढकते हैं, जहाँ राज्य की नीयत और व्यवस्था दोनों खड्‍डों में उबडखाबड़ हैं पर लोग पैबंदों से, जुगाड से या नियति मानकर दिन समय गुजार लेते हैं।

मैं खुद इस ढर्रे पर लंबे समय से सोचती आ रही है लेकिन हाल में एक ऐसी असुविधा मेरे दरवाज़े पर आ खड़ी हुई कि इस बार कंधे उचका कर भूलना, झेलना संभव नहीं हो रहा है।

पिछले महीने से हमारे मोहल्ले में पानी में नालों का कीचड आना शुरू हुआ। यों शुरुआत नलों की धार कम होने से हुई। फिर परेशानी बढ़ी और  टंकी ही खाली रहने लगी। आरडब्ल्यूए ने इसे छोटी गड़बड़ी बताकर टाल दिया, जल बोर्ड के टैंकर का भरोसा दिया।

बस फिर शुरू हुआ एक दुःस्वप्न—शिकायतें, चिट्ठियाँ, इंतज़ार, और रोज़ 100-200 रुपये देकर टैंक भराना, जो अगले दिन फिर खाली। जब दबाव बनाया गया तो मालूम हुआ कि मेट्रो निर्माण के दौरान पाइपलाइन फट गई है, ऊपर से आदेश है कि पहले सीवेज़ लाइन सुधरे। हम निवासियों ने यह आधा-सच मानकर समझौता कर लिया। जानकारी ही सुकून बन गई, जैसे कारण बता देने से असुविधा हल हो गई हो।

पर कुछ दिन पहले संकट और गहरा गया। अब पूरी कॉलोनी प्रभावित है। पानी नल में आया, तो सीवरेज, मलजल की तरह। जल बोर्ड के निरीक्षक आए, फोटो खिंचवाई, सिर हिलाया और वही कहा जो सबको पता था—गंदा पानी बह रहा है, मिक्स हो कर नलों में आ रहा है!

और यह दिल्ली का वह वसंत कुंज है जिसे “पॉश” कहा जाता है। और यह नया भी नहीं। बचपन में याद है जब गंदे पानी पर टीवी कैमरे आते थे, बच्चे बोतलें दिखाकर शहर को शर्मिंदा करते थे। तब यह घंटों में सुधर जाता था। पर अब कोई परवाह नहीं करता। दिनों गुजर जाए कोई सुनता नहीं। वही वसंत कुंज जहाँ देश के नामी संपादक रहते हैं, “विकसित भारत” पर रोज़ लेख लिखते हैं, जबकि उनके अपने घरों में गंदा पानी आ रहा है, बह रहा है। कॉलोनी की परेशानी के बीच टैंकर माफिया फलता-फूलता हुआ है। दाम 300 से 500 रू तक पहुँच गए है। कोई घंटों सड़क पर खड़ा रहता है ताकि टैंकर अपनी गली में मुडवा ले। कोई मजबूरी में गंदे पानी को ऊबाल कर पीता है या बिसलरी की बौतले मंगाता है।

पर यह सिर्फ़ वसंत कुंज की कहानी नहीं है। भारत की राजधानी में यमुना ने पिछले हफ्ते इतना गंदा पानी भेजा कि 30 NTU पर बना ट्रीटमेंट प्लांट 7000 NTU पर बैठ गया। मंडी हाउस से चाँदनी चौक तक नल से कीचड़ आया। फ़िल्टर टूटे, बाल्टियाँ दलदल बन गईं। जल बोर्ड ने बिना चेतावनी सप्लाई काट दी। दोष नदी पर डाला गया, सिल्ट पर डाला गया। लेकिन सच्चाई यह है कि तीन करोड़ लोगों की राजधानी में जलवायु संकट और शासन की नाकामी अब पानी की एक ही पाइप से बह रही हैं।

और यह सिर्फ़ दिल्ली की ही बात नहीं। बगल का गुरुग्राम अपनी ही गंदगी में डूबा है। बांधवारी लैंडफिल पहाड़ बन चुका है—गगनचुंबी इमारतों से भी ऊँचा। गर्मियों में जलता है, बरसात में जहर टपकाता है। बगल के टेक पार्क खुद को “ज़ीरो वेस्ट कैंपस” कहते हैं। यहाँ असुविधा न सिर्फ़ जी जाती है, बल्कि स्मारक बन जाती है—आवागमन के आसमान में स्थायी पृष्ठभूमि।

भारत हमेशा असुविधा के युग में जीता रहा है। जुगाड़ हमारी नसों में है। लेकिन मोदी शासन के 11 साल बाद सवाल और चुभता है: अगर यह विकास और विश्वगुरु का युग है, तो असुविधा क्यों दिनोदिन आसमान छूती  हुई है?

पिछली सरकारों में दिल्ली कम से कम बेहतर चलती थी। वसंत कुंज का पानी संकट लगभग ख़त्म हो गया था। सड़कें टूटी थीं, मगर धँसी नहीं थीं। पर आज मेरी कॉलोनी की सड़कें पहली बरसात में ही दलदल और गड्ढों में बदल जाती हैं। दो महीने पहले बना डामर पहली बारिश में ही बह गया।

यह है दिल्ली में बीजेपी की डबल इंजन सरकार का विरोधाभास। दिल्ली का सेंट्रल विस्टा नया नाम पाकर “कर्तव्य पथ”  करार दिया गया है। सभ्यता का प्रतीक बताया गया। मगर असली दिल्ली का असली हाल है महँगा घर, ज़हरीली हवा, गंदा पानी, और पहाड़ जैसे कूड़े, बदबू-सीलन, झुग्गीझोपडियों, भीड, ट्रैफिक और असुविधाओं का अनंत अंबार।

सच यही है कि आज शासन का आकलन न आपके नल पर साफ पानी, साफ-सुथरे पेयजल से है, न सड़क की सुरक्षा से। यह होता है प्रतीकों से—नाम बदलने से, ड्रोन शॉट्स से। नागरिकों को बस जुगाड़ों में खंपे रहना होता है। टैंकर माफिया को पैसा देकर, ठेकेदार को रिश्वत देकर, थाने में लाइन लगाकर भारत के हम लोग केवल भुगतते रहते है परेशानियां।

हम सहते हैं क्योंकि कोई चारा नहीं। हम ढलते हैं क्योंकि जीवन तो जीना है, मजबूरी जो है।

सो हमारी-आपकी असुविधा सिस्टम की नाकामी नहीं है। सिस्टम है ही परेशानियों की गंगौत्री है। गंगा हो यमुना हो नालों का ही पानी अमृत है। इसी से शासन का रूतबा है, तमाशा है विकसित भारत का गौरव है!

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By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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