कुछ दिन पहले मेरी मुलाक़ात एक महिला से हुई। सामान्य परिचय का सिलसिला शुरू हुआ—वह कॉरपोरेट में काम करती हैं। उन्होंने पूछा, “आप क्या करती हैं? मैंने कहा, “मैं पत्रकार हूँ।” गर्व से, ठहरकर। और उन्होंने बिना पलक झपकाए, बहुत सहजता से कहा, “ओह, मैं किसी पत्रकार को नहीं जानती।”
वह इसे व्यक्तिगत तौर पर नहीं कह रही थीं बल्कि जैसे, “मेरे सर्कल में कोई पत्रकार नहीं है।” नहीं, उनका मतलब सामान्य था। वह ख़बरें नहीं पढ़तीं, समसामयिक मामलों को नहीं जानतीं, और पत्रकारिता को तो शायद नाम से भी नहीं।
अजीब बात यह थी कि मैंने उनसे “क्यों?” नहीं पूछा।
मुझे कोई उत्सुकता नहीं हुई यह समझाने की कि ख़बरें क्यों ज़रूरी हैं, या अपने पेशे का बचाव करने की।
बल्कि मुझे कुछ और महसूस हुआ—अच्छा लगा।
थोड़ी राहत सी महसूस हुई।
क्योंकि शायद, आजकल पत्रकारों को जानना सचमुच कोई मायने नहीं रखता।
और नहीं, यह अपने ही पेशे के ख़िलाफ़ कोई शिकायत नहीं।
यह किसी पर उंगली उठाने या शर्म की बात नहीं। मेरे साथी पत्रकार काम कर रहे है। जितना संभव है, जितना समय की सीमाएँ, एल्गोरिदम और कॉर्पोरेट स्वामियों की शर्तें उन्हें अनुमति देती हैं। यह वैसी ही पत्रकारिता है जैसी हमारे दौर में बची है—टूटी-फूटी, दबाव में, पर चलती हुई।
इसलिए उस बातचीत में जो मुझे सबसे ज़्यादा लगा, वह यह नहीं था कि उसने क्या कहा—बल्कि यह कि अब उसके कहने का कोई असर नहीं था।
कभी पत्रकार होना मतलब था। सत्ता के पास होना और जनता के और पास। संसद में बैठना, प्रेस कॉन्फ़्रेंस में जाना, नेताओं से मिलना—चाहे आपकी संस्था कोई भी हो, आपकी पहचान मायने रखती थी।
वह समय था जब मानवता की समस्या सूचना की कमी थी।
एक किरण दिखाओ, और परिवर्तन की संभावना जग जाती थी।
जानना एक ज़िम्मेदारी था, और बताना एक पहचान।
अब कलम शायद तलवार से ज़्यादा ताक़तवर हो, लेकिन बटुआ कलम से कहीं ज़्यादा ताक़तवर है।
तब से अब तक, समय दस गुना बदल चुका है। अमीरों की दौलत और सत्ता कई गुना बढ़ चुकी है, और जो सरकारें उन्हें पोषित करती हैं, वे असहमति को कुचलने में और तत्पर हैं।
और हम ऐसे समय में आ गए हैं जब “सत्ता से सच बोलना” असंभव हो गया है—क्योंकि सत्ता ही आपके शब्द तय करती है।
ऑरवेल की दुनिया में सत्य वही था जो पार्टी कहे।
हमारी दुनिया में सत्य वही है जो ट्रेंड करता है।
इसलिए पत्रकारिता ने अब चुनौती देना नहीं, टिके रहना सीख लिया है।
रोज़गार योग्य रहना, दिखते रहना, प्रासंगिक बने रहना।
बोलते रहना—भले ही सिर्फ़ सन्नाटा भरने के लिए।
और फिर आता है ख़बरों का स्वभाव।
क्योंकि मान लीजिए कोई व्यक्ति आज भी ख़बरें देखता है—तो देख क्या रहा है?
हमारा समय ख़राब ख़बरों से संक्रमित लगता है।
युद्ध, मरते बच्चे, बाढ़, ढहती इमारतें, साइबर ठगी, आत्महत्याएँ, जलवायु आपदा, और फिर युद्ध।
ट्रंप के टैरिफ़, अमित शाह के बयान कि घुसपैठ ने मुस्लिम जनसंख्या बढ़ाई।
डर, धमकी, थकान—और पत्रकारिता, उसी डर की ध्वनि को और तेज़ करती हुई।
फिर आया डूम-स्क्रॉलिंग का युग—ख़बरें बिना ठहराव की, सामग्री बिना संदर्भ की।
यूट्यूब एंकर चिल्लाते हुए, इंस्टाग्राम रीलों में भावनाएँ तोड़-मरोड़ कर बेचते हुए, फ़ेसबुक पेज अपने को “ब्रेकिंग अपडेट्स” बताते हुए।
यह पत्रकारिता नहीं, बल्कि घबराहट और तमाशे का धीरे-धीरे टपकता ज़हर है—जो आपकी बेचैनी को बढ़ाता है, आपकी आत्मा पर क़ब्ज़ा करता है।
हर “अपडेट” आपको बस यही याद दिलाता है—आप छोटे हैं, असहाय हैं, और हमेशा चौकन्ने रहें।
सत्य मंत्रालय (Ministry of Truth) को अब हेडलाइनें फिर से लिखने की ज़रूरत नहीं—उसे बस आपको थका देना है।
और जब थकान हावी होती है, तो चुप्पी सहमति बन जाती है।
कुछ साल पहले इंडिया टुडे समूह ने “गुड न्यूज़ टुडे” (GNT) नाम का चैनल शुरू किया था। उस समय नाम अजीब लगा—“गुड न्यूज़”? वाक़ई?
लगता था भोला, जैसे उस देश के साथ मेल ही नहीं खाता जो उत्तेजना और आक्रोश पर चलता है।
पर वक़्त के साथ समझ आया—कितना ज़रूरी था वह।
एक जिद्दी आशा की लौ, उस परिदृश्य में जो निराशा में डूबा था।
हर कहानी—किसी बच्चे का बोरवेल से बचना, ओडिशा के गाँववालों का समुद्रतट पर मैंग्रोव लगाना, इसरो की युवा महिला वैज्ञानिकों का सीमित बजट में चाँद पर यान उतारना—अब दुर्लभ लगती है, लगभग क्रांतिकारी।
हाल ही में GNT की एक पत्रकार से मुलाक़ात हुई।
वह हँसते हुए बोलीं, “आपको यक़ीन नहीं होगा, हर बुलेटिन के लिए एक अच्छी ख़बर ढूँढना कितना मुश्किल है।”
वह व्यंग्य नहीं कर रही थीं—बस सच्चाई कह रही थीं।
ऐसी कहानियाँ ही कम बची हैं जो हानि या संघर्ष पर खत्म नहीं होतीं।
दुनिया इस कदर टूटन में डूबी है कि अब एक भी सकारात्मक हेडलाइन बग़ावत जैसी लगती है।
और इसी बीते वीकेंड, जब किसी युद्ध में ठहराव भी दया जैसा महसूस हुआ, जब दुनिया एक दिन को सांस ले सकी, जब बंधक रिहा हुए, जब बमों की आवाज़ थोड़ी धीमी हुई—तब हमें याद आया कि “अच्छी ख़बर” कैसी सुनाई देती है।
थोड़ी चुप, थोड़ी संदेहभरी—पर राहत जैसी।
और बहुत समय बाद, पत्रकारिता ने भी एक पल को अच्छा महसूस किया।
शायद इस हफ़्ते लिखने के लिए वाक़ई कुछ सकारात्मक है।
और अगर मैंने जल्दबाज़ी में कह दिया है, तो अगली कहानी मुझे ग़लत साबित कर दे।
और सच कहूँ, अगर आप भी अब ख़बरें नहीं पढ़ते, या किसी पत्रकार को नहीं जानते, तो यह भी ठीक है।
पत्रकार जाने जाने के लिए नहीं होते—वे बस गवाह होते हैं।
इतिहास का पहला मसौदा लिखने वाले, जो करावाजियो की तरह तब सामने आते हैं जब कहानी खत्म हो चुकी होती है और रोशनी उन पर देर से पड़ती है।