महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर राहुल नार्वेकर के शिव सेना विधायकों की अयोग्यता पर दिए फैसले के बाद यह बड़ा सवाल है कि आखिर दलबदल कानून की जरुरत क्या रह गई है? जब पार्टी टूटती है और कोई भी विधायक दलबदल कानून के तहत अयोग्य नहीं ठहराया जाता है तो फिर इस कानून की क्या जरुरत है? गौरतलब है कि जून 2022 में शिव सेना टूटी और पहले चरण में पार्टी के 16 विधायक अलग हो गए। शिव सेना ने तुरंत इन 16 विधायकों को अयोग्य घोषित करने का आवेदन दिया। उस समय स्पीकर का पद खाली था। लेकिन डिप्टी स्पीकर पद पर थे, जिनके पास आवेदन दिया गया था। शिव सेना के चुने हुए सचेतक सुनील प्रभु ने आवेदन दिया था। सोचें, 55 विधायकों वाली पार्टी के 16 विधायक टूटते हैं तो स्वाभाविक रूप से उनको अयोग्य ठहराया जाना चाहिए। लेकिन फैसला नहीं हुआ और बाद में अलग हुए विधायकों की संख्या 39 हो गई, जो कानूनी रूप से तय दो-तिहाई विधायकों की संख्या से ज्यादा है। इसी आधार पर चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे गुट को असली शिव सेना माना।
अब डेढ़ साल से ज्यादा बीत जाने और कई बार सुप्रीम कोर्ट के दखल देने के बाद स्पीकर ने भी कह दिया है कि शिंदे गुट ही असली शिव सेना है। लेकिन 39 विधायकों वाले गुट को असली मानने के बाद भी अब दूसरी ओर यानी उद्धव ठाकरे के साथ बचे हुए 15 विधायकों को अयोग्य नहीं ठहराया गया। इसका मतलब है कि कोई दलबदल नहीं है और कोई अयोग्य नहीं है। इस तरह की घटनाएं कई राज्यों में हुई है और केंद्र के स्तर पर भी हुई है। जब स्पीकर के हाथ में इसका फैसला है और वह सत्तारूढ़ दल का होता है इसलिए वह कोई फैसला नहीं करता है या करता है तो सत्ता वाले दल के पक्ष में करता है। जैसे झारखंड में चार साल से बाबूलाल मरांडी, प्रदीप यादव और बंधु तिर्की का फैसला नहीं हुआ। या पश्चिम बंगाल में मुकुल रॉय का फैसला नहीं हुआ या लोकसभा में पश्चिम बंगाल के अधिकारी पिता-पुत्र का फैसला नहीं हुआ, जबकि तृणमूल कांग्रेस ने उनकी सदस्यता खत्म करने की अपील की थी। तभी ऐसा लग रहा है कि इस कानून की कोई खास जरुरत नहीं रह गई है।