ऐसा लग रहा है कि उपेंद्र कुशवाहा की राजनीति का इतिहास एक बार फि दोहरा रहा है। वे दो बार जनता दल यू छोड़ चुके हैं और अब तीसरी बार उनके पार्टी छोड़ने की चर्चा चल रही है। वे पार्टी में उच्च पद पर होते हैं और तब छोड़ते हैं। फिर जब वे वापसी करते हैं तो उनको फिर बड़ा पद मिलता है। जैसे वे जनता दल यू के बिहार प्रदेश के अध्यक्ष थे और उसके बाद उन्होंने पार्टी छोड़ कर प्रदेश की यात्रा की और अलग राजनीति की। फिर उन्होंने पार्टी में वापसी की। यह कोई 2010 से थोड़ा पहले की बात होगी। पार्टी में आते ही उनको राज्यसभा की सीट मिली और काफी महत्व मिला। लेकिन करीब तीन साल तक रहने के बाद उन्होंने जदयू छोड़ कर राष्ट्रीय लोक समता पार्टी बनाई। 2014 में उन्होंने भाजपा के साथ चुनाव लड़ा। लोकसभा के सांसद बने और केंद्र में मंत्री बने।
कुशवाहा ने 2019 में भाजपा का साथ छोड़ दिया और राजद व कांग्रेस से मिल कर चुनाव लड़ा। वे दो सीटों से लड़े और दोनों सीट पर हार गए। 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने बसपा, एमआईएम आदि पार्टियों के साथ तीसरा मोर्चा बनाया। लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पाए। इसके बाद वे जनता दल यू में वापस लौट गए। वहां फिर उनको संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया और विधान परिषद भी भेजा गया। लेकिन अब फिर वे परेशान हैं। वे फिर से भाजपा नेताओं से मिल रहे हैं। हालांकि खुद उन्होंने कहा कि वे अभी जदयू में हैं और उसे मजबूत करेंगे लेकिन उनकी राजनीति का इशारा कुछ और है। बहरहाल, कुशवाहा ऐसे नेता हैं, जो दुस्साहसी या जोखिम लेने वाली राजनीति करते हैं। बाकी नेताओं से उनका फर्क यह है कि वे अच्छी पोजिशन के लिए दलबदल या गठबंधन बदल नहीं करते हैं, बल्कि अच्छी पोजिशन छोड़ कर यह काम करते हैं। उन्होंने राज्यसभा छोड़ कर अपनी पार्टी बनाई, केंद्रीय मंत्री पद छोड़ कर अलग गठबंधन किया और अब सत्तारूढ़ दल के एमएलसी व संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष हैं तब अलग राजनीति की तैयारी कर रहे हैं।