मानमानि के मामले में कांग्रेस नेता राहुल गांधी को सजा हुई और उसके बाद सदस्यता गई तो पहली बार विपक्षी नेताओं को इस कानून के खतरे का अहसास हुआ है। पहली बार उनको लगा है कि सरकार इसका इस्तेमाल करके किसी की भी सदस्यता खत्म कर सकती है। पहली बार किसी सामाजिक कार्यकर्ता को भी लगा है कि ऑटोमेटिक रूट से सदस्यता खत्म करने के कानून की समीक्षा जरूरी है और उसने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। हकीकत यह है कि जुलाई 2013 में लिली मैथ्यू और लोक प्रहरी की याचिका पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 30 से ज्यादा सांसदों व विधायकों की सदस्यता जा चुकी है। ऐसा नहीं है कि सबकी सदस्यता किसी गंभीर अपराध में दोषी ठहराए जाने पर गई है। लेकिन पहले किसी ने इसे चुनौती देने की जरूरत नहीं समझी और न इसे बड़ा मुद्दा बनाया गया।
सोचें, सिर्फ डेढ़ महीने पहले 15 फरवरी को उत्तर प्रदेश की स्वार विधानसभा सीट से समाजवादी पार्टी के विधायक अब्दुल्ला आजम की सदस्यता गई लेकिन तब क्या किसी विपक्षी पार्टी को समझ में आया कि इसके खिलाफ आवाज उठानी चाहिए? अब्दुल्ला आजम की सदस्यता राहुल गांधी से भी मामूली मुकदमे में गई है। कोई 15 साल पहले पहले रोड जाम करने के मामले में बवाल करने और सरकारी काम में बाधा डालने का मुकदमा उनके ऊपर हुआ था, जिसमें दो साल की सजा हो गई। सोचें, कौन ऐसा जमीनी नेता होगा, जिस पर इस तरह का मुकदमा नहीं हुआ होगा? लेकिन इस मामले में अब्दुल्ला आजम की सदस्यता चली गई। उससे पहले आजम खान की सदस्यता हेट स्पीच के मामले में गई। गंभीर अपराध के मामले में जयललिता से लेकर लालू प्रसाद तक अपनी सदस्यता गंवा चुके हैं।