अमेरिकी राजदूत ने “आत्म-निर्भर” भारत की नीति पर सवाल खड़े किए हैं। इसे इस रूप में भी देखा जा सकता है कि अब आत्म-निर्भरता की नीति और पश्चिमी अर्थव्यवस्था से भारत के जुड़ाव की प्राथमिकता के बीच तीखा अंतर्विरोध खड़ा हो रहा है।
इन दिनों पश्चिमी हस्तियों और मीडिया के बीच आम ट्रेंड आर्थिक मामलों में भारत को एक चमकती संभावना बताने का है। इसके पीछे एक वजह तो यह है कि उन देशों की कंपनियों को भारत के उच्च एवं उच्च-मध्यम वर्ग में एक लाभदायक बाजार नजर आता है। उनका दूसरा मकसद भारत को चीन के बरक्स खड़ा कर एक समानांतर कथानक प्रचारित करना है। इसलिए जब कोई जिम्मेदार पश्चिमी अधिकारी भारत की आर्थिक स्थिति या नीतियों की आलोचना करता हो, तो यह बात ध्यान खींचती है। बेहतर होगा कि भारत के सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े लोग भी ऐसी प्रतिकूल टिप्पणियों में निहित अर्थ एवं संदेशों को समझने की कोशिश करें। ऐसी एक आलोचना पिछले हफ्ते भारत स्थित अमेरिकी राजदूत एरिक गारसेटी से सुनने को मिली। जाहिर है, उन्होंने ये बातें पश्चिमी हितों के नजरिए से कीं। लेकिन हकीकत तो यही है कि भारत की वर्तमान अर्थनीति में पश्चिमी पूंजी और बाजार का बड़ा महत्त्व बना हुआ है।
गारसेटी ने भारत के टैक्स नियमों, निर्यात नियंत्रण, और बौदधिक संपदा संरक्षण की व्यवस्था पर गंभीर प्रश्न उठाए। उन्होंने स्पष्ट किया कि इन मोर्चों पर बिना “सुधार” किए पश्चिमी देशों से भारत अधिक गहरे आर्थिक रिश्ते नहीं बना पाएगा। गारसेटी ने कहा कि इन कारणों से बहुत सारा निवेश भारत को नजरअंदाज कर वियतनाम जैसे दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में चला जा रहा है। उन्होंने आगाह किया कि यह आग्रह देश के आर्थिक विकास की गति को धीमा कर सकता है कि हर चीज भारत में ही बननी चाहिए। तो जाहिर है कि अमेरिकी राजदूत ने नरेंद्र मोदी सरकार की “आत्म-निर्भर” भारत की नीति पर सवाल खड़े किए हैं। इसे इस रूप में भी देखा जा सकता है कि अब आत्म-निर्भरता की नीति और पश्चिमी अर्थव्यवस्था से भारत के जुड़ाव की प्राथमिकता के बीच तीखा अंतर्विरोध खड़ा हो रहा है। यानी ज्यादा समय तक इन दोनों मकसदों में तालमेल बनाकर चलना आसान नहीं होगा। यह भारत सरकार को तय करना होगा कि उसे “आत्म-निर्भर” भारत बनाना है, या पश्चिमी अर्थव्यवस्था से जुड़कर चलना है। “आत्म-निर्भर” बनना है, तो फिर अर्थव्यवस्था के पूरे स्वरूप को उसी उद्देश्य के अनुरूप ढालना होगा।