समस्या बनी रही यह समझ है कि सरकार को हर तरह के डेटा पर अपना स्वामित्व बनाने का प्रयास कर रही है। जबकि बेहतर यह होगा कि नया कानून बनाने के अवसर का उपयोग नागरिक अधिकारों के संरक्षण की अवधारणा के मुताबिक हो।
केंद्र के डिजिटल निजी डेटा संक्षरण (डीपीडीपी) विधेयक प्रारूप को लेकर पैदा हुए अंदेशों के पीछे एक वजह तो वर्तमान सरकार के पुराने रिकॉर्ड से पैदा हुआ अविश्वास है। समाज के एक बड़े हिस्से में धारणा गहरे बैठी हुई है कि नरेंद्र मोदी सरकार नागरिक जीवन के हर पहलू पर शिकंजा कसना चाहती है। बहरहाल, धारणाओं को छोड़ दें और आम जन की राय मांगने के लिए सार्वजनिक किए गए प्रारूप पर ध्यान दें, तो भी ये नहीं लगता कि सरकार का मकसद निजी डेटा पर व्यक्तियों के अधिकार को मजबूती प्रदान करना है। बल्कि लगता है कि वह सारे डेटा पर अपना नियंत्रण अधिक मजबूत करना चाहती है।
इसका एक प्रमुख पहलू डेटा को देश से विदेश ले जाने को नियंत्रित करना है। प्रावधान किया गया है कि जो कंपनियां यूजर्स डेटा हासिल करती हैं, उन्हें देश का डेटा देश के अंदर ही रखना होगा। हालांकि सरकार की तरफ से यह सफाई भी दी गई है कि इस प्रावधान को सिर्फ कुछ जरूरी मामलों में लागू किया जाएगा। वे मामले कौन-से होंगे, इसका निर्णय संबंधित मंत्रालय करेंगे। आज दुनिया भर में ट्रेंड डेटा को देश में रखने के लिए कंपनियों को मजबूर करने का है। मगर उसके साथ ही डेटा पर पहला अधिकार संबंधित व्यक्ति का है, यह सिद्धांत भी तेजी से स्वीकार्यता हासिल करता गया है। मगर भारतीय प्रारूप में इस निर्णय का अधिकार सरकार हासिल करती दिखती है।
एक अन्य प्रमुख प्रावधान बच्चों के इंटरनेट उपयोग से पहले माता-पिता की स्वीकृति को अनिवार्य बनाना है। यह कैसे होगा, इसकी जिम्मेदारी डेटा हासिल करने वाली कंपनियों पर डाल दी गई है। कंपनियों के मुताबिक यह बेहद मुश्किल काम है। कई विकसित देशों में भी इसे सुनिश्चित करना कठिन बना रहा है। वैसे इस प्रावधान के पीछे मकसद अच्छा है। लेकिन कुल समस्या प्रारूप को लेकर बन रही यह समझ है कि इसके जरिए सरकार को हर तरह के डेटा पर अपना स्वामित्व बनाने का प्रयास कर रही है। जबकि बेहतर यह होगा कि नया कानून बनाने के इस अवसर का उपयोग नागरिक अधिकारों के संरक्षण की अवधारणा के मुताबिक हो।