आम अनुभव यही है कि लिबरल डेमोक्रेसी के अंदर नीतिगत आधार पर मौजूद वास्तविक विकल्पों का अभाव बढ़ता चला गया है। नतीजा यह है कि ऐसे नेताओं और दलों के लिए रास्ता खुल गया है, जो जनता के बीच उत्तेजना फैलाने में माहिर हैं।
विश्व मीडिया में 2024 को चुनावों का साल बताया गया है। इस वर्ष तकरीबन 60 देशों में किसी ना किसी स्तर के चुनाव होने हैं। शुरुआत बांग्लादेश में सात जनवरी को होने वाले संसदीय चुनाव होगी। लेकिन असल में वहां मतदाताओं के सामने चुनने के लिए कोई सार्थक विकल्प नहीं है। चूंकि प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद की अवामी लीग सरकार विपक्ष को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव का भरोसा नहीं दिला पाई, इसलिए मुख्य विपक्षी दल- बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी- ने चुनाव का बायकॉट कर दिया है। इस वर्ष आठ फरवरी को पाकिस्तान में संसदीय एवं प्रांतीय चुनाव होंगे। लेकिन वहां के वास्तविक शासक- सैन्य एवं खुफिया तंत्र- ने देश के सबसे लोकप्रिय नेता इमरान खान और उनकी पार्टी को मुकाबलों से जबरन बाहर कर दिया है। अप्रैल-मई में भारत में चुनाव होंगे, जहां यह आम धारणा बन गई है कि अब सभी राजनीतिक दलों को मुकाबले का समान धरातल नहीं मिलता।
साल के आखिर- यानी नवंबर में दुनिया का ध्यान अमेरिका पर टिकेगा, जहां नए राष्ट्रपति का चुनाव होगा। लेकिन इस बीच जिस संदिग्ध ढंग से सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार डॉनल्ड ट्रंप को मुकाबले से बाहर करने की कोशिशें की जा रही हैं, उससे अमेरिकी लोकतंत्र पर भी सवाल गहराते जा रहे हैं। ये सिर्फ कुछ प्रमुख मिसालें हैं। वरना, आम अनुभव यही है कि लिबरल डेमोक्रेसी के अंदर नीतिगत आधार पर मौजूद वास्तविक विकल्पों का अभाव बढ़ता चला गया है। नतीजा यह है कि राजनीतिक चर्चाएं सांस्कृतिक एवं पहचान संबंधी मुद्दों पर केंद्रित हो गई हैं। इससे ऐसे नेताओं और दलों के लिए रास्ता खुला है, जो जनता के बीच उत्तेजना फैलाने में माहिर हैं। अनेक देशों में लिबरल अभिजात वर्ग ने इन ताकतों के आगे समर्पण कर दिया है, जबकि कुछ जगहों पर ऐसे नेताओं को वैसे तरीकों से रोकने कोशिश हो रही है, जिन्हें किसी रूप में लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। नतीजतन, लिबरल डेमोक्रेसी चरमराती नजर आ रही है। इसका क्या दूरगामी परिणाम होगा, अभी यह साफ नहीं है। लेकिन तात्कालिक परिणाम के तौर पर लोकतांत्रिक मान्यताएं और संस्थाएं बेदम होती जा रही हैं और तानाशाही प्रवृत्तियों की जड़ मजबूत हो रही है।