यह समझना मुश्किल है कि इस समय जबकि सत्ता के लगभग पूरे तंत्र पर सरकार का नियंत्रण है, चुनावों की निष्पक्षता और उनमें सभी पक्षों का भरोसा सुनिश्चित करने वाली एक साधारण-सी व्यवस्था भी वह क्यों बर्दाश्त नहीं कर पा रही है?
विपक्ष के तमाम एतराज और विरोध को दरकिनार करते हुए केंद्र ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया बदलने संबंधी विधेयक को राज्यसभा से पारित करा लिया। यह इस बात का साफ संकेत है कि अपने बहुमत के दम पर वर्तमान सरकार ऐसे कदम भी बेहिचक उठा रही है, जिससे देश के लोकतंत्र की बुनियाद पर प्रहार होगा। इससे पहले कि इस प्रस्तावित कानून के असर पर बात करें, इस तथ्य को भी जरूर रेखांकित किया जाना चाहिए कि इस वर्ष यह दूसरा बिल है, जो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने के लिए लाया गया है। इसके पहले दिल्ली सेवा विधेयक के जरिए दिल्ली सरकार के अधिकार संबंधी अदालत के फैसले को पलटा जा चुका है। अब इस बिल के जरिए इस वर्ष मार्च में आए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के उस निर्णय पलटा जा रहा है, जिसमें कोर्ट ने निर्वाचन आयुक्तों के नियुक्ति करने वाली समिति की संरचना तय की थी। कोर्ट ने कहा था कि इस समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता, और प्रधान न्यायाधीश होंगे।
स्पष्टतः मकसद इन नियुक्तियों में यथासंभव निष्पक्षता को सुनिश्चित करना था। मगर सरकार को यह बात पसंद नहीं आई। तो अब लाए गए बिल में नियुक्ति समिति से भारत के प्रधान न्यायाधीश को निकाल देने और उनकी जगह एक केंद्रीय मंत्री को शामिल करने का प्रावधान किया जा रहा है। यानी समिति में सरकार अपना बहुमत सुनिश्चित कर रही है, ताकि वह जिसे चाहे उसे निर्वाचन आयुक्त बना सके। यह समझना मुश्किल है कि इस समय जबकि सत्ता के लगभग पूरे तंत्र पर सरकार का नियंत्रण है, निष्पक्षता और सभी पक्षों का भरोसा सुनिश्चित करने वाली एक साधारण-सी व्यवस्था भी वह क्यों बर्दाश्त नहीं कर पा रही है? देश में आयोजित हो रहे चुनावों पर पहले से ही कई हलकों से और कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। उसके बीच इस नए विवाद को हवा दे दी गई है। ऐसा करते हुए इस अपेक्षा की घोर अनदेखी की जा रही है कि चुनाव प्रक्रिया में सबका यकीन लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है। इसका उल्लंघन हुआ, तो लोकतांत्रिक व्यवस्था ही संदिग्ध हो जाएगी।